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[ज्ञाताधर्मकथा
(अमनोहर) वाणी से तर्जना कर रहा था। ऐसा भयानक पिशाच उन लोगों को दिखाई दिया।
विवेचन-उल्लिखित पाठ में तालपिशाच का दिल दहलाने वाला चित्र अंकित किया गया है। पाठ के प्रारम्भ में 'अरहण्णगवजा संजत्ताणावावाणियगा' पाठ आया है। इसका आशय यह नहीं है कि अर्हन्त्रक के सिवाय अन्य वणिकों ने ही उस पिशाच को देखा। वस्तुतः अर्हन्नक ने भी उसे देखा था, जैसा कि आगे के पाठों से स्पष्ट प्रतीत होता है। किन्तु 'अर्हन्नक के सिवाय' इस वाक्यांश का सम्बन्ध सूत्र संख्या ६४वें के साथ है। अर्थात् अर्हन्नक के सिवाय अन्य वणिकों ने उस भीषणतर संकट के उपस्थित होने पर क्या किया, यह बतलाने के लिए 'अरहण्णगवज्जा' पद का प्रयोग किया गया है। उस संकट के अवसर पर अर्हन्नक ने क्या किया, यह संख्या ६५वें में प्रदर्शित किया गया है।
अन्य वणिकों से अर्हन्नक की भिन्नता दिखलाना सूत्रकार का अभीष्ट है। भिन्नता का कारण हैअर्हन्नक का श्रमणोपासक होना, जैसा कि सूत्र ५३ में प्रकट किया गया है। सच्चे श्रावक में धार्मिक दृढ़ता किस सीमा तक होती है, यह घटना उसका स्पष्ट निदर्शन कराती है।
६३-तंतालपिसायरूवं एजमाणं, पासंति, पासित्ता भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुद्द-सिव-वेसमण-णागाणं भूयाण य जक्खाण य अजकोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा ओवाइयमाणा चिट्ठति।
अर्हनक को छोड़कर शेष नौकावणिक् तालपिशाच के रूप को नौका की ओर आता देख कर डर गये, अत्यन्त भयभीत हुए, एक दूसरे के शरीर से चिपट गये और बहुत से इन्द्रों की, स्कन्दों (कार्तिकेय) की तथा रुद्र, शिव, वैश्रवण और नागदेवों की, भूतों की, यक्षों की, दुर्गा की तथा कोट्टक्रिया (महिषवाहिनी दुर्गा) देवी की बहुत-बहुत सैकड़ों मनौतियाँ मनाने लगे।
६५-तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एजमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिण्णमुहराग-णयणवण्णे अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंमि वत्थंतेणं भूमिं पमजइ, पमजित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी
_ 'नमोऽथु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव' ठाणं संपताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गाओ मुंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयव्वे' त्ति कटु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ।
अर्हनक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को आता देखा। उसे देख कर वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ, त्रास को प्राप्त नहीं हुआ, चलायमान नहीं हुआ, संभ्रान्त नहीं हुआ, व्याकुल नहीं हुआ, उद्विग्न नहीं हुआ। उसके मुख का राग और नेत्रों का वर्ण नहीं बदला। उसके मन में दीनता या खिन्नता उत्पन्न नहीं हुई। उसने पोतवहन के एक भाग में जाकर वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके उस स्थान पर बैठ गया और दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोला
___ 'अरिहन्त भगवंत' यावत् सिद्धि को प्राप्ति प्रभु को नमस्कार हो (इस प्रकार 'नमोत्थु णं' का पूरा
१.प्र.
अ.८