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________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] [२३५ विसालवच्छं, पेच्छंता भिन्नणह-मुह-नयण-कन्नं वरवग्घ-चित्तकत्तीणिवसणं, सरस-रुहिरगयचम्म-वितत-ऊसविय-बाहुजुयलं, ताहि य खर-फरुस-असिणिद्ध -अणि?-दित्त-असुभअप्पिय-अंकतवग्गूहि य तज्जयंतं पासंति। (पूर्व वार्णित तालपिशाच का ही यहां विशेष वर्णन किया गया है। यह दूसरा वर्णन पाठ है।) तत्पश्चात् अर्हन्नक के सिवाय दूसरे सांयात्रिक नौकावणिकों ने एक बड़े तालपिशाच को देखा। उसकी जाँचे ताड़ वृक्ष के समान लम्बी थीं और बाहुएँ आकाश तक पहुँची हुई खूब लम्बी थीं। उसका मस्तक फूटा हुआ था, अर्थात् मस्तक के केश बिखरे थे। वह भ्रमरों के समूह, उत्तम उड़द के ढेर और भैंस के समान काला था। जल से परिपूर्ण मेघों के समान श्याम था। उसके नाखून सूप (छाजले) के समान थे। उसकी जीभ हल के फाल के समान थी-अर्थात् बावन पल प्रमाण अग्नि में तपाए गये लोहे के फाल के समान लाल चमचमाती और लम्बी थी। उसके होठ लम्बे थे। उसका मुख धवल, गोल, पृथक्-पृथक्, तीखी, स्थिर, मोटी और टेढ़ी दाढ़ों से व्याप्त था। उसके दो जिह्वाओं के अग्रभाग बिना म्यान की धारदार तलवार-युगल के समान थे, पतले थे, चपल थे, उनमें से निरन्तर लार टपक रही थी। वह रस-लोलुप थे, चंचल थे, लपलपा रहे थे और मुख से बाहर निकले हुए थे। मुख फटा होने से उसका लाल-लाल तालु खुला दिखाई देता था और वह बड़ा, विकृत, बीभत्स और लार झराने वाला था। उसके मुख से अग्नि की ज्वालाएं निकल रही थीं। अतएव वह ऐसा जान पड़ता था, जैसे हिंगलू से व्याप्त अंजनगिरि की गुफा रूपी बिल हो। सिकुड़े हुए मोठ (चरस) के समान उसके गाल सिकुड़े हुए थे, अथवा उसकी इन्द्रियाँ, शरीर की चमड़ी, होठ और गाल-सब सल वाले थे। उसकी नाक छोटी थी, चपटी थी, टेढ़ी और भग्न थी, अर्थात् ऐसी जान पड़ती थी जैसे लोहे के घन से कूटपीट दी गई हो। उसके दोनों नथुनों (नासिकापुटों) से क्रोध के कारण निकलता हुआ श्वासवायु निष्ठुर और अत्यन्त कर्कश था। उसका मुख मनुष्य आदि के घात के लिए रचित होने से भीषण दिखाई देता था। उसके दोनों कान चपल और लम्बे थे, उनकी शष्कुली ऊँचे मुख वाली थी, उन पर लम्बे-लम्बे और विकृत बाल थे और वे कान नेत्र के पास की हड्डी (शंख) तक को छूते थे। उसके नेत्र पीले और चमकदार थे। उसके ललाट पर भृकुटि चढ़ी थी जो बिजली जैसी दिखई देती थी। उसकी ध्वजा के चारों ओर मनुष्यों के मूंडों की माला लिपटी हुई थी। विचित्र प्रकार के गोनस जाति के सर्मों का उसने बख्तर बना रखा था। उसने इधर-उधर फिरते और फुफकारने वाले सर्पो, बिच्छुओं, गोहों, चूहों, नकुलों और गिरगिटों की विचित्र प्रकार की उत्तरासंग जैसी माला पहनी हुई थी। उसने भयानक फन वाले और धमधमाते हुए दो काले साँपों के लम्बे लटकते कुंडल धारण किये थे। अपने दोनों कंधों पर विलाव और सियार बैठा रखे थे। अपने मस्तक पर देदीप्यमान एवं घू-घू ध्वनि करने वाले उल्लू का मुकट बनाया था। वह घंटा के शब्द के कारण भीम और भयंकर प्रतीत होता था। कायर जनों के हृदय को दलन करने वाला-चीर देने वाला था। वह देदीप्यमान अट्टहास कर रहा था। उसका शरीर चर्बी, रक्त, मवाद, मांस और मल से मलिन और लिप्त था। वह प्राणियों को त्रास उत्पन्न करता था। उसकी छाती चौड़ी थी। उसने श्रेष्ठ व्याघ्र का ऐसा चित्र-विचित्र चमड़ा पहन रखा था जिसमें (व्याघ्र के) नाखून, (रोम), मुख, नेत्र और कान आदि अवयव पूरे और साफ दिखाई पड़ते थे। उसने ऊपर उठाये हुए दोनों हाथों पर रस और रुधिर से लिप्त हाथी का चमड़ा फैला रखा था। वह पिशाच नौका पर बैठे हुए लोगों की, अत्यन्त कठोर, स्नेहहीन, अनिष्ट, उत्तापजनक, स्वरूप से ही अशुभ, अप्रिय तथा अकान्त-अनिष्ट स्वर वाली
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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