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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२३९ की ध्वनि से युक्त पंचवर्ण के उत्तम वस्त्र धारण करके अर्हन्नक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा
.. ७१–'हं भो अरहन्नगा ! धन्नोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव जोवियफले, जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए वहूणं देवाणं मज्झगए महया सद्देणं आइक्खइ–'एवं खलुजंबुद्दीवेदीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहन्नए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नोखलुसक्का केणए देवेण वा दाणवेण वा निग्गंथाओ पावयणाओचालित्तए वा जाव [खोभित्तए वा] विपरिणामित्तए वा'।
तएणं अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स देविंदस्स एयमलैंणो सद्दहामि, नो रोययामि।तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव [चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पेगे समुप्पज्जित्था-'गच्छामि णं अरहन्नयस्स अंतियं पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहन्नगे? किं पियधम्मे ? णो पियधम्मे? दढधम्मे? नो दढधम्मे? सीलव्वयगुणे किं चालेइ जाव[नो चालेइ ? खोभेइ नो खोभेइ ? खंडेइ? नो खंडेइ? भंजेइ नो भंजेइ ? उज्झइ नो उज्झइ?] परिच्चयइ ? णो परिच्चयइ ? त्ति कटु एवं संपेहेमि, संपेहित्ता ओहिं पउंजामि, पउंजित्ता देवाणुप्पिया! ओहिणा आमोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं उत्तरवेउव्वियं समुग्धामि ताए, उक्किट्ठाए जाव [देवगईए] जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि।उवागच्छित्ता देवाणुप्पियाणं उवसग्गं करेमि। नोचेवणं देवाणुप्पिया भीया वा तत्था वा, तंजणं सक्के देविंदे देवराया वदइ, सच्चेणं एसमठे। तं दिढे णं देवाणुप्पियाणं इड्ढी जई जसो बलं जाव [वीरियं पुरिसक्कार] परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरहंतु णं देवाणुप्पिया ! णाइ भुजो भुजो एवं करणयाए।'त्ति कटुपंजलिउडे पायवडिए एयम→भुजो भुजोखामेइ, खामित्ता अरहन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयइ, दलइत्ता जामेव दिसिं पाउवभूए तामेव पडिगए।
'हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो। देवानुप्रिय! [तुम कृतार्थ हो, देवानुप्रिय! तुम सफल लक्षण वाले हो, देवानुप्रिय!] तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है कि जिसको अर्थात् तुम को निर्ग्रन्थप्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति (श्रद्धा) लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है और आचरण में लाने के कारण सम्यक् प्रकार से सन्मुख आई है।' हे देवानुप्रिय! देवों के इन्द्र और देवों के राजा शक्र ने सौधर्म कल्प में, सौधर्मावतंसक नामक विमान में
और सुधर्मा सभा में, बहुत-से देवों के मध्य में स्थित होकर महान् शब्दों से इस प्रकार कहा था-'निस्संदेह जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत क्षेत्र में, चम्पानगरी में अर्हनक नामक श्रमणोपासक जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता है। उसे निश्चय ही कोई देव या दानव निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान करने में यावत् सम्यक्त्व से च्युत करने में समर्थ नहीं है।'
तब हे देवानुप्रिय! देवेन्द्र शक्र की इस बात पर मुझे श्रद्धा नहीं हुई। यह बात रुची नहीं। तब मुझे इस प्रकार का विचार, [चिन्तन, अभिलाष एवं संकल्प] उत्पन्न हुआ कि-'मैं जाऊँ और अर्हन्नक के समक्ष प्रकट होऊँ। पहले जानूँ कि अर्हन्नक को धर्म प्रिय है अथवा धर्म प्रिय नहीं है? वह दृढ़धर्मा है अथवा दृढधर्मा नहीं है ? वह शीलव्रत और गुणव्रत आदि से चलायमान होता है, यावत् [अथवा चलायमान नहीं होता? क्षुब्ध