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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२३३ [बोल-कलकल ] रवेणं पक्खुभिय-महासमुद्द-रवभूयं पिव मेइणिं करेमाणा एगदिसिं जाव [एगाभिमुहा अरहन्नगपामोक्खा संजुत्ता-नावा] वाणियगा णावं दुरूढा।
__तत्पश्चात् नौका में पुष्पबलि (पूजा) समाप्त होने पर, सरस रक्तचंदन का पांचों उंगलियों का थापा (छापा) लगाने पर, धूप खेई जाने पर, समुद्र की वायु की पूजा हो जाने पर, बलयवाहा (लम्बे काष्ठ-वल्ले) यथास्थान संभाल कर रख लेने पर, श्वेत पताकाएँ ऊपर फहरा देने पर, वाद्यों की मधुर ध्वनि होने पर विजयकारक सब शकुन होने पर, यात्रा के लिए राजा का आदेशपत्र प्राप्त हो जाने पर, महान् और उत्कृष्ट सिंहनाद यावत् [कलकल] ध्वनि से, अत्यन्त क्षुब्ध हुए महासमुद्र की गर्जना के समान पृथ्वी को शब्दमय करते हुए एक तरफ से [एकाभिमुख होकर वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौका वणिक्] नौका पर चढ़े।
५८-तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु-'हं भो ! सव्वेसिमवि अत्थसिद्धी, उवट्ठियाई कल्लाणाई, पडिहयाइं सव्वपावाई, जुत्तो पूसो, विजओ मुहूत्तो अयं देसकालो।'
तओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्टतुट्ठा कुच्छिधार-कन्नधार-गब्भिज्जसंजत्ताणावावाणियगा वावारिसु, तं नावं पुन्नुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहिंतो मुंचंति।
तत्पश्चात् वन्दीजन ने इस प्रकार वचन कहा-'हे व्यापारियो! तुम सब को अर्थ की सिद्धि हो, तुम्हें कल्याण प्राप्त हुए हैं, तुम्हारे समस्त पाप (विघ्न) नष्ट हुए हैं। इस समय पुष्य नक्षत्र चन्द्रमा से युक्त है और विजय नामक मुहूर्त है, अत: यह देश और काल यात्रा के लिए उत्तम है।
तत्पश्चात् वन्दीजन के द्वारा इस प्रकार वाक्य कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए कुक्षिधार-नौका की बगल में रहकर बल्ले चलाने वाले, कर्णधार (खिवैया), गर्भज-नौका के मध्य में रहकर छोटे-मोटे कार्य करने वाले और वे सांयात्रिक नौकावणिक् अपने-अपने कार्य में लग गये। फिर भांडों से परिपूर्ण मध्य भाग वाली और मंगल से परिपूर्ण अग्रभाग वाली उस नौका को बन्धनों से मुक्त किया।
५९-तए णं सा णावा विमुक्कबंधणा पवणबलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुवई गंगासलिल-तिक्खसोयवेगेहिं संखुब्भमाणी संखुब्भमाणी उम्मी-तरंगमालासहस्साइं समतिच्छमाणी समतिच्छमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाइं ओगाढा।
तत्पश्चात् वह नौका बन्धनों से मुक्त हुई एवं पवन के बल से प्रेरित हुई। उस पर सफेद कपड़े का पाल चढ़ा हुआ था, अतएव ऐसी जान पड़ती थी जैसे पंख फैलाए कोई गरुड़-युवती हो ! वह गंगा के जल के तीव्र प्रवाह के वेग से क्षुब्ध होती-होती, हजारों मोटी तरंगों और छोटी तरंगों के समूह को उल्लंघन करती हुई कुछ अहोरात्रों (दिन-रातों) में लवणसमुद्र में कई सौ योजन दूर तक चली गई।
६०-तएणं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्तानावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भूयाई। तंजहा
तत्पश्चात् कई सौ योजन लवण-समुद्र में पहुँचे हुए उन अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौकावणिकों को बहुत से सैकड़ों उत्पात प्रादुर्भूत होने लगे। वे उत्पात इस प्रकार थे
६१-अकाले गज्जिए, अकाले विजुए, अकाले थणियसबे, अभिक्खणं आगासे