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________________ आचार्य जिनसेन ने स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले, ये दो स्वप्न के प्रकार माने हैं। जब शरीर पूर्ण स्वस्थ होता है तो मन पूर्ण शांत रहता है, उस समय जो स्वप्न दीखते हैं वह स्वस्थ अवस्था वाला स्वप्न है। ऐसे स्वप्न बहुत ही कम आते हैं और प्रायः सत्य होते हैं। मन विक्षिप्त हो और शरीर अस्वस्थ हो उस समय देखे गये स्वप्न असत्य होते हैं । आचार्य ने दोषसमुद्भव और देवसमुद्भव' इस प्रकार स्वप्न के दो भेद भी किये हैं। वात, पित्त, कफ प्रभृति शारीरिक विकारों के कारण जो स्वप्न आते हैं वे दोषज हैं। इष्टदेव या मानसिक समाधि की स्थिति में जो स्वप्न आते हैं वे देवसमुद्भव हैं। स्थानांग और भगवती में यथातथ्य स्वप्न, (जो स्वप्न में देखा है जागने पर उसी तरह देखना, अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति) प्रतानस्वप्न (विस्तार से देखना) चिन्तास्वप्न (मन में रही हुई चिन्ता को स्वप्न में देखना) तद्विपरीत स्वप्न (स्वप्न में देखी हुई घटना का विपरीत प्रभाव) अव्यक्त स्वप्न (स्वप्न में दिखाई देने वाली वस्तु का पूर्ण ज्ञान न होना), इन पांच प्रकार के स्वप्नों का वर्णन है। प्राचीन भारतीय स्वप्नशास्त्रियों ने स्वप्नों के नौ कारण बतलाये हैं (१) अनुभूत स्वप्न (अनुभव की हुई वस्तु का) (२) श्रुत स्वप्न (३) दृष्ट स्वप्न (४) प्रकृतिविकारजन्य स्वप्न (वात, पित्त, कफ की अधिकता और न्यूनता से) (५) स्वाभाविक स्वप्न (६) चिन्ता-समुत्पन्न स्वप्न (जिस पर पुनः पुनः चिन्तन किया हो) (७) देव प्रभाव से उत्पन्न होने वाला स्वप्न (८) धर्मक्रिया प्रभावोत्पादित स्वप्न और (९) पापोदय से आने वाला स्वप्न। इसमें छह स्वप्न निरर्थक होते हैं और अन्त के तीन स्वप्न शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यक भाष्य में उनका उल्लेख किया है। हम जो स्वप्न देखते हैं इनमें कोई-कोई सत्य होते हैं। हम पूर्व में बता चुके हैं कि जब इन्द्रियाँ प्रसुप्त होती हैं और मन जाग्रत होता है तो उसके परदे पर भविष्य में होने वाली घटनाओं का प्रतिबिम्ब गिरता है। मन उन अज्ञात घटनाओं का साक्षात्कार करता है। वह सुषुप्ति और अर्ध-निद्रावस्था में भावी के कुछ अस्पष्ट संकेतों को ग्रहण कर लेता है और वे स्वप्न रूप में दिखायी देते हैं। स्वप्नशास्त्रियों ने यह भी बताया है कि किस समय देखा गया स्वप्न उत्तम और मध्यम होता है। रात्रि के प्रथम प्रहर में जो स्वप्न दिखते हैं उनका शुभ-अशुभ परिणाम बारह महीने में प्राप्त होता है। द्वितीय प्रहर के १. ते च स्वप्ना द्विधा भ्रातः स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः । समैस्तु धातुभिः स्वस्वविषमैरितरैर्मता। तथ्या स्युः स्वस्वथसंदृष्टा मिथ्या स्वप्नो विपर्ययात्। जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम्॥ -महापुराण ४१-५९/६० २. वही सर्ग ४१/६१ ३. स्थानांग-५ ४. भगवती-१६-६ ५. अनुभूतः श्रुतो दृष्टः प्रकृतेश्च विकारजः। स्वभावतः समुद्भूतः चिन्तासंततिसंभवः ॥ देवताधुपदेशोत्थो धर्मकर्मप्रभावजः। पापोद्रेकसमुत्थश्च स्वप्नः स्यानवधा नृणाम्॥ प्रकारैरादिमैः षड्भि-रशुभश्चाशुभोपि वा। दृष्टो निरर्थको स्वप्नः सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः॥ -स्वप्नशास्त्र ६. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १७०३ २६
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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