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भी बताया है। वहाँ पर अनेक सन्तगण ध्यान की साधना करते थे। जैन और बौद्ध साहित्य में उनके उल्लेख हैं। भगवती आदि में गर्म पानी के कुण्डों का वर्णन है। युवान्च्वाङ् ने भी इस बात को स्वीकार किया है। उस पानी से अनेक कर्मरोगी पूर्ण स्वस्थ हो जाते थे, आज भी वे कुण्ड हैं। स्वप्न : एक चिन्तन
प्रस्तुत अध्ययन में महारानी धारिणी के स्वप्न का वर्णन है । वह स्वप्न में अपने मुख में हाथी को प्रवेश करते हुए देखती है। जहाँ कहीं भी आगम-साहित्य में कोई भी विशिष्ट पुरुष गर्भ में आता है, उस समय उसकी माता स्वप्न देखती है। स्वप्न न जागते हुए आते हैं, न प्रगाढ़ निद्रा में आते हैं किन्तु जब अर्धनिद्रित अवस्था में मानव होता है उस समय उसे स्वप्न आते हैं। अष्टांगहृदय में लिखा है-जब इन्द्रियाँ अपने विषय में निवृत्त होकर प्रशान्त हो जाती हैं और मन इन्द्रियों के विषय में लगा रहता है तब वह स्वप्न देखता है।
जैन दर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय है । दर्शनमोह के कारण मन में राग और द्वेष का स्पन्दन होता है, चित्त चंचल बनता है। शब्द आदि विषयों से संबंधित स्थूल और सूक्ष्म विचार-तरंगों से मन प्रकंपित होता है। संकल्प-विकल्प या विषयोन्मुखी वृत्तियां इतनी प्रबल हो जाती हैं कि नींद आने पर भी शांति नहीं होती। इन्द्रियाँ सो जाती हैं, किन्तु मन की वृत्तियाँ भटकती रहती हैं। वे अनेकानेक विषयों का चिन्तन करती रहती हैं । वृत्तियों की इस प्रकार की चंचलता ही स्वप्न है।
सिग्मण्ड फ्रायड ने स्वप्न का अर्थ दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति कहा है। उन्होंने स्वप्न के संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावान्तरकरण, और नाटकीकरण, ये चार प्रकार किये हैं। (१) बहुत विस्तार की घटना को स्वप्न में संक्षिप्त रूप से देखना (२) स्वप्न में घटना को विस्तार से देखना (३) घटना का रूपान्तर हो जाना, किन्तु मूल संस्कार वही है, अभिभावक द्वारा भयभीत करने पर स्वप्न में किसी क्रूर व्यक्ति आदि को देखकर भयभीत होना (४) पूरी घटनाएँ नाटक के रूप में स्वप्न में आना।।
चार्ल्स युग' स्वप्न को केवल अनुभव की प्रतिक्रिया नहीं मानते हैं । वे स्वप्न को मानव के व्यक्तित्व का विकास और भावी जीवन का द्योतक मानते हैं। फ्रायड और युंग के स्वप्न संबंधी विचारों में मुख्य रूप से अन्तर यह है कि फ्रायड यह मानता है कि अधिकांश स्वप्न मानव की कामवासना से सम्बन्धित होते हैं जबकि युग का मन्तव्य है कि स्वप्नों का कारण मानव के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छाओं का दमन मात्र ही नहीं होता अपितु उसके गंभीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभतियाँ भी होती हैं। स्वप्न में केवल दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति की बात पूर्ण संगत नहीं है, वह केवल संयोग मात्र ही नहीं है, किन्तु उसमें अभूतपूर्व सत्यता भी रही हुई होती है।
१. एतेषु पर्वतेन्द्रेषु सर्वसिद्ध समालयाः ।
यतीनामाश्रमश्चैव मुनीनां च महात्मनाम्। वृषभस्य तमालस्य महावीर्यस्य वै तथा। गंधर्वरक्षसां चैव नागानां च तथाऽऽलयाः॥
-महाभारत सभापर्व अ. २१, १२-१४ २. ऑन युवान्च्वाङ्ग, वाटर्स, २, १५४ ३. भगवती सूत्र १६-६ ५. हिन्दी विश्वकोष खण्ड-१२ पृ. २६४
४. अष्टांगहृदय निदानस्थान. ९