________________
[ ज्ञाताधर्मकथा
उस काल और उस समय में कौशल नामक देश था । उसमें साकेत नामेक नगर था । उस नगर से उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा में एक नागगृह (नागदेव की प्रतिमा से युक्त चैत्य ) था । वह प्रधान था, सत्य था अर्थात् नागदेव का कथन सत्य सिद्ध होता था, उसकी सेवा सफल होती थी और वह देवाधिष्ठित था ।
२२६ ]
३८ – तत्थ णं नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागराया परिवसइ, तस्स पउमावई देवी, सुबुद्धी अमच्चे साम-दंड भेद-उपप्पयाण-नीतिसुपउत्त-णयविहण्णू जाव' रज्जधुराचिंतए होत्था ।
उस साकेत नगर में प्रतिबुद्धि नामक इक्ष्वाकुवंश का राजा निवास करता था । पद्मावती उसकी पटरानी थी, सुबुद्धि अमात्य था, जो साम, दंड, भेद और उपप्रदान नीतियों में कुशल था यावत् राज्यधुरा की चिन्ता करने वाला था, राज्य का संचालन करता था ।
३९ – तए णं पउमावईए अन्नया कयाई नागजन्नए यावि होत्था । तए णं सा पउमावई नागन्नमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव [ परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं बद्धावेइ ] बद्धावेत्ता एवं वयासी – 'एवं खलु सामी ! मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सइ, तं इच्छामि णं सामी ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुब्भे वि णं सामी ! मम नागजन्नंसि समोसरह ।
-
किसी समय एक बार पद्मावती देवी की नागपूजा का उत्सव आया। तब पद्मावती देवी नागपूजा का उत्सव आया जानकर प्रतिबुद्धि राजा के पास गई। पास जाकर दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्र करके, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोली- 'स्वामिन्! कल मुझे नागपूजा करनी है। अतएव आपकी अनुमति पाकर मैं नागपूजा करने के लिए जाना चाहती हूँ। स्वामिन्! आप भी मेरी नागपूजा में पधारो, ऐसी मेरी इच्छा है।'
४० - तए णं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमट्टं । तए णं पउमावई पडिबुद्धिणा रण्णा अब्भणुन्नाया हट्ठतुट्ठा कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया! मम कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे मालागारे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं वयह
तब प्रतिबुद्धि राजा ने पद्मावती देवी की यह बात स्वीकार की। पद्मावती देवी राजा की अनुमति पाकर हर्षित और सन्तुष्ट हुई। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा - ' 'देवानुप्रियो ! कल यहाँ मेरे नागपूजा होगी, सो तुम मालाकारों को बुलाओ और उन्हें इस प्रकार कहो
-
४१ – ' एवं खलु पउमावईव देवीए कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! जलथलयभासुरप्पभूयं दसद्धवन्नं मल्लं नागघरयंसि साहरह, एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह | तए णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहभत्तिसुविहरइयं करेह । तंसि भंत्तिसि हंस-मिय-मऊर-कोंच-सारस - चक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेयं ईहामियं जाव' भत्तिचित्तं महग्घं महरिहं विपुलं पुप्फमंडवं विरएह । तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एवं महं सिरिदामगंड जावर गंधद्धुणिं मुयंतं उल्लोयंसि ओलंबेह । ओलंबित्ता पउमावई देविं पडिवालेमाणा
१. प्रथम. अ. १५ २. प्र. अ. ३१ ३. अष्टम अ. १७