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________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] [२२५ विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तओ मणुनाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ कल्लाकल्लि एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगमईए मत्थयच्छिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी विहरइ। । तत्पश्चात् मल्ली कुमारी ने माणिपीठिका के ऊपर अपनी जैसी, अपनी जैसी त्वचावाली, अपनी सरीखी उम्र की दिखाई देने वाली, समान लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एक सुवर्ण की प्रतिमा बनवाई। उस प्रतिमा के मस्तक पर छिद्र था और उस पर कमल का ढक्कन था। इस प्रकार की प्रतिमा बनवा कर जो विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वह खाती थी, उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन एक-एक पिण्ड (कवल) लेकर उस स्वर्णमयी, मस्तक में छेद वाली यावत् प्रतिमा में, मस्तक में से डालती रहती थी। ३६-तएणंतीसे कणगमईए जावमत्थयछिड्डाए पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे पउमुप्पलपिहाणं पिहेइ। तओ गंधे पाउन्भवइ, से जहानामए, अहिमडेइ वा जाव [गोमडे इ वा, सुणहमडे इ वा, मज्जारमडे इ वा, मणुस्समडे इ वा, महिसमडे इ वा, मूसगमडे इ वा, आसमडे इ वा, हत्थिमडे इ वा, सीहमडे इ वा, वग्घमडे इ वा, विगमडे इ वा,.दीविगमडे इ वा] मय-कुहिय-विणट्ठ-दुरभिवण्ण-दुब्भिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते असुइ-विलीण-विगय-वीभच्छदरिसणिजे भवेयारूवे सिया? । ___ नो इणढेसमठे। एत्तो अणि?तराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराएं। तत्पश्चात् उस स्वर्णमयी यावत् मस्तक में छिद्र वाली प्रतिमा में एक-एक पिण्ड डाल-डाल कर कमल का ढक्कन ढंक देती थी। इससे उसमें ऐसी दुर्गन्ध उत्पन्न होती थी जैसी सर्प के मृत कलेवर की हो, यावत् [गाय के मृत कलेवर, कुत्ते के मृत कलेवर, मार्जार (बिलाव) के मृत कलेवर, मनुष्य के मृत कलेवर, महिषा के मृत कलेवर, इसी प्रकार मूषक (चूहे), अश्व, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया) या द्वीपिका के मृत कलेवर की हो] और वह भी मरने के पश्चात् सड़े-गले, दुर्वर्ण एवं दुर्गन्ध वाले, कीड़ों के समूह जिसमें बिलबिला रहे हों, जो अशुचिमय, विकृत तथा देखने में बीभत्स हो। क्या उस प्रतिमा में से ऐसी-मृत कलेवर की गन्ध के समान दुर्गन्ध निकलती थी? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् वह दुर्गन्ध ऐसी नहीं थी वरन् उससे भी अधिक अनिष्ट, उससे भी अधिक अकमनीय, उससे भी अधिक अप्रिय, उससे भी अधिक अमनोरम और उससे भी अधिक अनिष्ट गन्ध उत्पन्न होती थी। राजा प्रतिबुद्धि ३७-तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसले नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सागेए नाम नयरे होत्था। तस्स णं उत्तरपुरथिमे दिसीभाए एत्थ णं महं एगे णागघरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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