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________________ २२४] [ज्ञाताधर्मकथा में घटित नहीं होते। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में ये विशेषण पाये भी नहीं जाते। अथवा 'वरकमलगर्भ' का अर्थ कस्तूरी समझना चाहिए। कस्तूरी के वर्ण की उपमा घटित हो सकती है, किन्तु भाषा-शास्त्र की दृष्टि से यह अर्थ चिन्तनीय है। ३२-तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव [विण्णयपरिणयमेत्ता जोव्वणमणुपत्ता] रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य अईव अईव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था। तत्पश्चात् विदेहराज की वह श्रेष्ठ कन्या (मल्ली) बाल्यावस्था से मुक्त हुई यावत् (समझदार हुई, यौवनवय को प्राप्त हुई) तथा रूप, यौवन और लावण्य से अतीव-अतीव उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। ३३-तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना देसूणवाससयजाया ते छप्पि य रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी विहरइ, तंजहा–पडिबुद्धि जाव [इक्खगरायं, चंदच्छायं अंगरायं रुपिं कुणालाहिवइं संखं कासिरायं अदीणसत्तुं कुरुरायं] जियसत्तुं पंचालाहिवइं। .. तत्पश्चात् विदेहराज की वह उत्तम कन्या मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हो गई, तब वह उन (पूर्व के बालमित्र) छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान से जानती-देखती हुई रहने लगी। वे इस प्रकार-प्रतिबुद्धि यावत् [इक्ष्वाकुराज, चन्द्रच्छाय अंगराज, शंख काशीराज, रुक्मि कुणालराज, अदीनशत्रु कुरुराज] तथा पंचालदेश के राजा जितशत्रु को बार-बार देखती हुई रहने लगी। मोहनगृह का निर्माण ____३४-तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं देवाणुप्पिया! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह अणेयखंभसयसन्निविटुं। तत्थ णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए छ गब्भघरए करेह। तेसिं णं गब्भघराणं बहुमज्झदेसभाए जालघरयं करेह । तस्स णं जालघरयस्स बहुमझदेसभाए मणिपेढियं करेह।' ते वि तहेव जाव पच्चप्पिणंति। ___ तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया–बुलाकर कहा'देवानुप्रियो! जाओ और अशोकवाटिका में एक बड़ा मोहनगृह (मोह उत्पन्न करने वाला अतिशय रमणीय घर) बनाओ, जो अनेक सैकड़ों खम्भों से बना हुआ हो। उस मोहनगृह के एकदम मध्य भाग में छह गर्भगृह (कमरे) बनाओ। उन छहों गर्भगृहों के ठीक बीच में एक जालगृह (जिसके चारों ओर जाली लगी हो और उसके भीतर की वस्तु बाहर वाले देख सकते हों ऐसा घर) बनाओ। उस जालगृह के मध्य में एक मणिमय पीठिका बनाओ।' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार सर्व निर्माण कर आज्ञा वापिस सौंपी। ३५-तएणं मल्ली मणिपेढियाए उवरिं अप्पणो सरिसियं सरिसत्तयं सरिसव्वयं सरिसलावन्न-जोव्वण-गुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छिड्डं पउमुष्पलप्पिहाणं पडिमं करेइ, करित्ता जं
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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