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________________ २१६] [ज्ञाताधर्मकथा प्रकार बातचीत हुई–'हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से एक जिस तप को अंगीकार करके विचरे हम सब को एक साथ वही तप:क्रिया ग्रहण करके विचरना उचित है।' अर्थात् हम सातों एक ही प्रकार की तपस्या किया करेंगे।' इस प्रकार कहकर सबने यह बात अंगीकार की। अंगीकार करके अनेक चतुर्थभक्त, बेला, तेला, चोला, पंचोला, मासखमण, अर्धमासखमण-एक-सी तपस्या करते हुए विचरने लगे। महाबल का मायाचार १३-तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थिणामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसुजइ णं ते महब्बलवजा छ अणगारा चउत्थं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे छटुं उवसंपजित्ता णं विहरइ। जइ णं ते महब्बलवज्जा अणगारा छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। एवं अट्ठमं तो दसमं, अह दसमं तो दुवालसमं। तत्पश्चात् उन महाबल अनगार ने इस कारण से स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन किया-यदि वे महाबल को छोड़ कर शेष छह अनगार चतुर्थभक्त (उपवास) ग्रहण करके विचरते, तो महाबल अनगार [उन्हें बिना कहे] षष्ठभक्त (बेला) ग्रहण करके विचरते। अगर महाबल के सिवाय छह अनगार षष्ठभक्त अंगीकार करके विचरते तो महाबल अनगार अष्टभक्त (तेला) ग्रहण करके विचरते। इसी प्रकार वे अष्टभक्त करते तो महाबल दशमभक्त करते, वे दशमभक्त करते तो महाबल द्वादशभक्त कर लेते। (इस प्रकार अपने साथी मुनियों से छिपा कर-कपट करके महाबल अधिक तप करते थे।) तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन १४-इमेहि य वीसाएहि य कारणेहि आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्म निव्वत्तिंसु, तंजहा अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसुं। वल्लभया य तेसिं, अभिक्ख णाणोवओगे य॥१॥ दसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारं। खणलव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ॥२॥ अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो॥३॥ (महाबल ने) स्त्री नामगोत्र के अतिरिक्त इन कारणों के एक बार और बार-बार सेवन करने से तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का भी उपार्जन किया। वे कारण यह हैं (१) अरिहंत (२) सिद्ध (३) प्रवचन-श्रुतज्ञान (४) गुरु-धर्मोपदेशक (५) स्थविर अर्थात् साठ वर्ष की उम्र वाले जातिस्थविर, समवायांगादि के ज्ञाता श्रुतस्थविर और बीस वर्ष की दीक्षा वाले पर्यायस्थविर, यह तीन प्रकार के स्थविर साधु (६) बहुश्रुत-दूसरों की अपेक्षा अधिक श्रुत के ज्ञाता और (७) तपस्वी-इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना अर्थात् इनका यथोचित सत्कार-सम्मान करना, गुणोत्कीर्तन
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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