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सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ]
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वे पाँच शालि के दाने ग्रहण किये और एकान्त में चली गई। तब मुझे इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ कि पिताजी (श्वसुरजी) के कोठार में बहुत से शालि भरे हैं, जब मांगेंगे तो दे दूंगी। ऐसा विचार करके मैंने वह दाने फेंक दिये और अपने काम में लग गई। अतएव हे तात! ये वही शालि के दाने नहीं हैं। ये दूसरे हैं।'
२० - तए णं से धण्णे उज्झियाए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झिइयं तस्स मित्त-नाइ - नियग-सयण-संबन्धि-परियणस्स चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च संपुच्छियं च सम्मज्जिअं च पाउवदाइयं च ण्हाणावदाइयं च बाहिरपेसणकारिं च ठवेइ ।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, हुए, उग्र और क्रोध में आकर मिसमिसाने लगे। उन्होंने उज्झिका को उन मित्रों ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने कुलगृह की राख फेंकने वाली, छाणे डालने या थापने वाली, कचरा झाड़ने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिए पानी देने वाली और बाहर के दासी के कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया ।
२१ - एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव (आयरियउवज्झायाण अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं ) पव्वइए पंच य से महव्वयाइं उज्झियाई भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव' अणुपरियट्टिस्सइ । जहा सा उज्झिया ।
इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु अथवा साध्वी यावत् आचार्य अथवा उपाध्याय के निकट गृहत्याग करके और प्रवज्या लेकर पाँच (दानों के समान पाँच) महाव्रतों का परित्याग कर देता है, वह उज्झका की तरह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, यावत् अनन्त संसार में पर्यटन करेगा।
२२ - एवं भोगवइया वि' नवरं तस्स कुलघरस्स कंडंतियं कोट्टंतियं पीसंतियं च एवं रुंधतियं च रंधंतियं च परिवेसंतियं च परिभायंतियं च् अब्भितरियं पेसणकारिं महाणसिणिं ठवेइ । इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए (उसने प्रसाद समझ कर दाने खा लेने की बात कही ) । विशेषता यह कि ( वह पांचों दाने खा गई थी, अतएव उसे ) खांडने वाली, कूटने वाली, पीसने वाली, जां में दल कर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधने वाली, परोसने वाली, त्यौहारों के प्रसंग पर स्वजनों के घर जाकर ल्हावणी बांटने वाली, घर में भीतर की दासी का काम करने वाली एवं रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया ।
२३ - एवामेव समणाउसो ! सो अम्हं समणो वा समणी वा पंच य से महव्वयाई फोडियाइं भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं जाव' हीलणिज्जे, जहा व सा भोगवइया ।
१. तृतीय अ. २० २. सप्तम अ. १७-२०
३. तृतीय अ. २०