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[ज्ञाताधर्मकथा
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो साधु अथवा साध्वी पांच महाव्रतों को फोड़ने वाला अर्थात् रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर नष्ट करने वाला होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, जैसे वह भोगवती।
२४-एवं रक्खिया वि। नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मंजूसं विहाडेइ, विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ताजेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच सालिअक्खए धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थे दलयइ।
इसी प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए। विशेष यह है कि (पांच दाने मांगने पर) वह जहाँ उसका निवासगृह था, वहाँ गई। वहाँ जाकर उसने मंजूषा खोली। खोलकर रत्न की डिबिया में से वह पांच शालि के दाने ग्रहण किये। ग्रहण करके जहाँ धन्य-सार्थवाह था, वहाँ आई। आकर धन्य-सार्थवाह के हाथ में वे शालि के पांच दाने दे दिये।
___२५–तए णं से धण्णे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी-'किं णं पुत्ता! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, उदाहु अण्णे?' त्ति।
तए णं रक्खिया धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-'तेचेव ताया! एए पंच सालिअक्खया, णो अण्णे।'
'कहं णं पुत्ता?'
"एवं खलु ताओ! तुब्भे इओ पंचमम्मि संवच्छरे जाव' भवियव्वं एत्थ कारणेणं ति कट्ट ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी यावि विहरामि।तओ एएणं कारणेणं ताओ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, णो अण्णे।'
उस समय धन्य-सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री! क्या यह वही पांच शालिअक्षत हैं या दूसरे हैं?
रक्षिका ने धन्य-सार्थवाह को उत्तर दिया-'तात! ये वही शालिअक्षत हैं, दूसरे नहीं हैं।' धन्य ने पूछा-'पुत्री! कैसे?'
रक्षिका बोली-'तात! आपने इससे पहले पांचवें वर्ष में शालि के पांच दाने दिये थे। तब मैंने विचार किया कि इस देने में कोई कारण होना चाहिए। ऐसा विचार करके इन पांच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बांधा, यावत् तीनों संध्याओं में सार-संभाल करती रहती हूँ। अतएव, हे तात! ये वही शालि के दाने हैं, दूसरे नहीं।'
२६-तएणं से धण्णे सत्थवाहे रक्खियाए अंतिए एयमढे सोच्चा हट्टतुटे तस्स कुलघरस्स हिरनस्स य कंस-दूस-विपुलधण जाव (कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवालरत्तरयण-संत-सार-) सावतेजस्स य भंडागारिणिं ठवेइ। १. सप्तम अ. सूत्र ८