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पञ्चम अध्ययन : शैलक]
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तत्पश्चात् शैलक अनगार ने मंडुक राजा के इस अर्थ को (विज्ञप्ति को) 'ठीक है' ऐसा कहकर स्वीकार किया और राजा वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया।
तत्पश्चात् वह शैलक राजर्षि कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर, सूर्योदय हो जाने के पश्चात् सहस्ररश्मि सूर्य के देदीप्यमान होने पर भंडमात्र (पात्र) और उपकरण लेकर पंथक प्रभृति पाँच सौ मुनियों के साथ शैलकपुर में प्रविष्ट हुए। प्रवेश करके जहाँ मंडुक राजा की यानशाला थी, उधर आये। आकर प्रासुक पीठ फलक शय्या संस्तारक ग्रहण करके विचरने लगे।
६२-तए णं मंडुएरायाचिगिच्छएसद्दावेइ, सद्दावित्ता एवंवयासी-'तुब्भेणं देवाणुप्पिया! सेलयस्स फासुय-एसणिजेणं जाव (ओसह-भेसज-भत्त-पाणेण) तेगिच्छं आउट्टेह।'
तए णं तेगिच्छया मंडुएणंरण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा सेलयस्स रायरिसिस्स अहापवित्तेहिं ओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउट्टेति। मज्जपाणयं च से उवदिसंति।
तए णं तस्स सेलयस्स अहापवित्तेहिं जाव मज्जापाणेणं रोगायंके उवसंते होत्था, हटे जाव बलियसरीरे (गलियसरीरे) जाए ववगयरोगायंके।
तत्पश्चात् मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो! तुम शैलक राजर्षि की प्रासुक और एषणीय औषध, भेषज, एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो।'
- तब चिकित्सक मंडुक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा की और मद्यपान करने की सलाह दी।
तत्पश्चात् साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान से तथा मद्यपान करने से शैलक राजर्षि का रोग-आतंक शान्त हो गया। वह हृष्ट-पुष्ट यावत् बलवान् शरीर वाले हो गये। उनके रोगातंक पूरी तरह दूर हो गए। शैलक की शिथिलता
६३-तएणंसेलए तंसि रोगायंकंसि उवसंतंसिसमाणंसि, तंसि विपुलंसि असण-पाणखाइम-साइमंसि मज्जपाणए यमुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी एवं पासत्थे पासत्थविहारी, कुसीले कुसीलविहारी, पमत्ते पमत्तविहारी, संसत्ते संसत्तविहारी, उउबद्धपीढफलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरइ। नो संचाएइ फासुयं एसणिजं पीढ-फलग-सेज्जासंथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए।
तत्पश्चात् शैलक राजर्षि उस रोगातंक के उपशान्त हो जाने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्छित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गये। वह अवसन्न-आलसी अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाएं सम्यक् प्रकार से न करने वाले, अवसन्नविहारी अर्थात् लगातार बहुत दिनों तक आलस्यमय जीवन यापन करने वाले हो गए। इसी प्रकार पार्श्वस्थ (ज्ञान-दर्शन-चारित्र को एक किनारे रख देने वाले) तथा पार्श्वस्थविहारी अर्थात् बहुत समय ज्ञानादि को एक किनारे रखे देने वाले, कुशील अर्थात् कालविनय आदि भेद वाले ज्ञान दर्शन और चारित्र के आचारों के विराधक, बहुत समय तक विराधक होने के कारण कुशीलविहारी तथा प्रमत्त (पाँच प्रकार के प्रमाद से युक्त), प्रमत्तविहारी, संसक्त (कदाचित् संविग्न के