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________________ १८४] [ ज्ञाताधर्मकथा पारभोयणेहि अ पयइसुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा) जाव दुरहियासा, कंडुयदाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे यावि विहरइ । तणं से सेल ते रोगायंकेणं सुक्के जाए यावि होत्था । तत्पश्चात् प्रकृति से सुकुमार और सुखभोग के योग्य शैलक राजर्षि के शरीर में सदा अन्त ( चना आदि), प्रान्त (ठंडा या बचाखुचा), तुच्छ (अल्प), रूक्ष (रूखा), अरस (हींग आदि के संस्कार से रहित), विरस, (स्वादहीन), ठंडा-गरम, कालातिक्रान्त (भूख का समय बीत जाने पर प्राप्त) और प्रमाणातिक्रान्त ( कम या ज्यादा ) भोजन - पान मिलने के कारण वेदना उत्पन्न हो गई । वह वेदना उत्कट यावत् विपुल, कठोर, प्रगाढ़, प्रचंड एवं दुस्सह थी। उनका शरीर खुजली और दाह उत्पन्न करने वाले पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। तब वह शैलक राजर्षि उस रोगातंक से शुष्क हो गये, अर्थात् उनका शरीर सूख गया। शैलक की चिकित्सा ६० - तए णं से सेलए अन्नया कयाइं पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव (गामाणुगामं दूइज्माणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव सेलगपुरे नगरे) जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव विहर। परिसा निग्गया, मंडुओ वि निग्गओ, सलयं अणगारं वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता पज्जुवासइ । से मंडराया लयस्स अणगारस्स सरीरयं सुक्कं भुक्कं जाव सव्वाबाहं सरोगं पासइ, पासित्ता एवं वयासी - ' अहं णं भंते! तुब्धं अहापवित्तेहिं तिगिच्छएहिं अहापवित्तेणं ओसहभेसज्जेणं भत्तपाणेणं तिगिच्छं आउट्टामि, तुब्धे णं भंते! मम जाणसालासु समोसरह, फासु एसणिज्जं पीढफलग - सेज्जा - संथारगं ओगिण्हित्ताणं विहरह ।' तत्पश्चात् शैलक राजर्षि किसी समय अनुक्रम से विचरते हुए यावत् [ सुखपूर्वक ग्रामानुग्राम गमन करते हुए जहाँ शैलपुर नगर था और ] जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहां आकर विचरने लगे। उन्हें वन्दन करने के लिए परिषद् निकली। मंडुक राजा भी निकला। शैलक अनगार को सब ने वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार करके उपासना की। उस समय मंडुक राजा ने शैलक अनगार का शरीर शुष्क, निस्तेज यावत् सब प्रकार की पीड़ा से आक्रान्त और रोगयुक्त देखा। देखकर इस प्रकार कहा 4 'भगवन्! मैं आपकी साधु के योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध और भेषज के द्वारा तथा भोजन-पान द्वारा चिकित्सा कराना चाहता हूँ। भगवन्! आप मेरी यानशाला में पधारिए और प्रासुक एवं एषणीय पीठ, शय्या तथा संस्तारक ग्रहण करके विचरिए । ' ६१ - तए णं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रण्णो एयमट्टं तह त्ति पडिसुणेइ । तए णं से मंडुए सेलयं वंद, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तसे सेलए कल्लं जाव ( पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सुरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा) जलंते सभंडमत्तोवगरणमायाय पंथगपामोक्खेहिं पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मंडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता फासु पीढ (फलग - सेज्जा - संथारयं ) जाव (ओगिहित्ता ) विहरइ ।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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