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[ज्ञाताधर्मकथा
गुणों और कदाचित् पार्श्वस्थ के दोषों से युक्त तथा तीन गौरव वाले) तथा संसक्तविहारी हो गए। शेष (वर्षाऋतु के सिवाय) काल में भी शय्या-संस्तारक के लिए पीठ-फलक रखने वाले प्रमादी हो गए। वह प्रासुक तथा एषणीय पीठ फलक आदि को वापिस देकर और मंडुक राजा से अनुमति लेकर बाहर जनपद-विहार करने में असमर्थ हो गए। साधुओं द्वारा परित्याग
६४-तएणं तेसिंपंथयवजाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाइंएगयओसहियाणं जाव (समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं) पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झथिए (चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे ) जाव समुप्पजित्था'एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रजं जाव पव्वइए, विपुलं णं असण-पाण-खाइम-साइमे मजपाणए य मुच्छिए, नो संचाएइ जाव' विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! समणाणं जाव (निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलग-सेजासंथारए) पमत्ताणं विहरित्तए। सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कल्लं सेलयं रासरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेजा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठवेत्ता बहिया अब्भुजएणं जाव (जणवयविहारेणं) विहरित्तए।' एवं संपेहित्ता, संपेहित्ता कल्लं चेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारंवेयावच्चकरं ठावेंति, ठावित्ता बहिया जाव (जणवयविहारं) विहरंति।
तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए-मिले, एक साथ बैठे। तब मध्य रात्रि के समय धर्मजागरण करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ किशैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्छित हो गये हैं। वह जनपद-विहार करने में समर्थ नहीं हैं। हे देवानुप्रियो! श्रमणों को [अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त, शेष काल में भी एक स्थानस्थायी तथा] प्रमादी होकर रहना नहीं कल्पता है। अतएव देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेयस्कर है कि कल शैलक राजर्षि से आज्ञा लेकर और पडिहारी पीठ फलग शय्या एवं संस्तारक वापिस सौंपकर, पंथक अनगार को शैलक अनगार का वैयावृत्यकारी स्थापित करके अर्थात् सेवा में नियुक्त करके बाहर जनपद में अभ्युद्यत अर्थात् उद्यम सहित विचरण करें।' उन मुनियों ने ऐसा विचार किया। विचार करके, कल अर्थात् दूसरे दिन शैलक राजर्षि के समीप जाकर, उनकी आज्ञा लेकर, प्रतिहारी पीठ फलक शय्या संस्तारक वापिस दे दिये। वापिस देकर पंथक अनगार को वैयावृत्यकारी नियुक्त किया-उनकी सेवा में रखा। रखकर बाहर देश-देशान्तर में विचरने लगे।
विवेचन-राजर्षि शैलक शिथिलाचार के केन्द्र बन गए, यह घटना न असंभव है, न विस्मयजनक । चिकित्सकों से साधुधर्म के अनुसार चिकित्सा करने के लिए कहा गया था, फिर भी उनका मद्यपान
१. पंचम अ.६३.