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पञ्चम अध्ययन : शैलक ]
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प्रतिबोध प्राप्त हुआ । विशेष यह कि राजा ने निवेदन किया- 'हे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लूँ–उनकी अनुमति ले लूँ और मंडुक कुमार को राज्य पर स्थापित कर दूँ। उसके पश्चात् आप देवानुप्रिय के समीप मुंडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार-दीक्षा अंगीकार करूँगा ।'
यह सुनकर, शुक अनगार ने कहा- 'जैसे सुख उपजे वैसा करो । '
५४ - तए णं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणं सन्निसन्ने । तसे सेल राया पंथयपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे मए इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए । अहं णं देवाप्पिया! संसारभयउव्विग्गे जाव (भीए जम्म- जर मरणाणं सुयस्स अणगारस्स अंतिए मुंडे भवत्ता अगाराओ अणगारियं ) पव्वयामि । तुब्भे णं देवाणुप्पिया! किं करेइ ? किं वसेह ? किं वा ते हियइच्छिए त्ति ?
तए णं तं पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं वयासी - 'जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसारभयउव्विग्गे जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिय ! किमन्ने आहारे वा आलंबे वा ? अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया ! संसारभयडव्विग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुप्पिया! अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणे य जाव (कुडुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिजे मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए) तहाणं पव्वइयाणवि समाणाणं बहुसु जाव चक्खुभूए ।'
तत्पश्चात् शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला ( राजसभा) थी, वहाँ आया। आकर सिंहासन पर आसीन हुआ ।
तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक आदि पांच सौ मंत्रियों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो ! मैंने शुक अनगार से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है। वह धर्म मुझे रुचा है । अतएव हे देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्न होकर [ जन्म-जरा-मरण से भयभीत होकर, शुक अनगार के समीप होकर गृहत्याग करके अनगार-] दीक्षा ग्रहण कर रहा हूँ। देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे ? कहाँ रहोगे ? तुम्हारा हित और अभीष्ट क्या है ? अथवा तुम्हारी हार्दिक इच्छा क्या है ? '
तब वे पंथक आदि मंत्री शैलक राजा से इस प्रकार कहने लगे- 'देवानुप्रिय ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् प्रव्रजित होना चाहते हैं, तो हे देवानुप्रिय ! हमारा दूसरा (पृथ्वी की तरह) आधार कौन है ? हमारा (रस्सी के समान) आलंबन कौन है ? अतएव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न होकर दीक्षा अंगीकार करेंगे। हे देवानुप्रिय ! जैसे आप यहाँ गृहस्थावस्था में बहुत से कार्यों में, कुटुम्ब संबन्धी विषयों में, मन्त्रणाओं में, गुप्त एवं रहस्यमय बातों में, कोई भी निश्चय करने में एक बार और बार- बार पूछने योग्य हैं, मेढी, प्रमाण, आधार, आलंबन और चक्षुरूप मार्गदर्शक हैं, मेढी प्रमाण आधार आलंबन एवं नेत्र समान हैं यावत् आप मार्गदर्शक हैं, उसी प्रकार दीक्षित होकर भी आप बहुत से कार्यों में यावत् चक्षुभूत (मार्गप्रदर्शक ) होंगे ।