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[ ज्ञाताधर्मकथा
में उतार डाले। अपने ही हाथ से शिखा उखाड़ ली। उखाड़ कर जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया। आकर वन्दन - नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार करके मुंडित होकर यावत् थावच्चापुत्र अनगार के निकट दीक्षित हो गया। फिर सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वों का अध्ययन किया। तत्पश्चात् थावच्चापुत्र शुक को एक हजार अनगार (जो उसके साथ दीक्षित हुए थे), शिष्य के रूप में प्रदान किये।
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थावच्चापुत्र की मुक्ति
५२ - तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नीयरीओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारमहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छिता पुंडरीयं पव्वयं सणियं सनियं दुरूहइ। दुरूहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव (पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए) पाओवगमणं समणुवन्ने ।
तथावच्चात् बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सट्टिं भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे ।
. तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार सौगंधिका नगरी से और नीलाशोक उद्यान से बाहर निकले। निकल कर जनपदविहार अर्थात् विभिन्न देशों में विचरण करने लगे। तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र ( अपना अन्तिम समय सन्निकट समझ कर) हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीक - शत्रुंजय पर्वत था, वहाँ आये। आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर उन्होंने मेघघटा के समान श्याम और जहाँ देवों का आगमन होता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके संलेखना धारण कर आहार- पानी का त्याग कर उस शिलापट्टक पर आरूढ़ होकर यावत् पादपोपगमन अनशन ग्रहण किया ।
तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, एक मास की संलेखना करके साठ भक्तों का अनशन करके यावत् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, समस्त कर्मों से मुक्त हुए, संसार का अन्त किया, परिनिर्वाण प्राप्त किया तथा सर्व दुःखों से मुक्त हुए ।
शैलक राजा की दीक्षा
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५३ – तए णं सुए अन्नया कयाइं जेणेव सेलगपुरे नयरे, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया, सेलओ निग्गच्छइ । धम्मं सोच्चा जं णवरं - देवाणुप्पिया! पंथगपामोक्खाई पंच मंतिसयाई आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि ।'
'अहासुहं देवाणुप्पिया!'
तत्पश्चात् शुक अनगार किसी समय जहाँ शैलकपुर नगर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्य था, वहीं पधारे। उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। शैलक राजा भी निकला। धर्मोपदेश सुनकर उसे