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________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [१६१ पयाहिणं करेइ, वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिट्ठनेमिस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विनएणं पज्जवासति। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने समुद्रविजय वगैरह दस दसारों को तथा पूर्ववर्णित अन्य सबको यावत् अपने निकट प्रकट हुआ देखा। देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना सजाओ और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने 'बहुत अच्छा' कह कर सेना सजवाई और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित किया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने स्नान किया। वे सब अलंकारों से विभूषित हुए। विजय गंधहस्ती पर सवार हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किए हुए और भटों के बहुत बड़े समूह से घिरे हुए द्वारका नगरी के बीचोंबीच होकर बाहर निकले। जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और जहाँ अशोक वृक्ष था, उधर पहुँचे। पहुँचकर अर्हत् अरिष्टनेमि के (अतिशय) छत्रातिछत्र (छत्रों के ऊपर छत्र), पताकातिपताका (पताकाओं के ऊपर पताका), विद्याधरों, चारणों एवं मुंभक देवों को नीचे उतरते और ऊपर चढ़ते देखा। यह सब देखकर वे विजय गंधहस्ती से नीचे उतर गए। उतरकर पांच अभिग्रह करके अर्हत् अरिष्टनेमि के सामने गये। पांच अभिग्रह ये हैं-(१) सचित्त वस्तुओं का त्याग (२) अचित्त वस्तुओं का अत्याग (३) एकशाटिक उत्तरासंग (४) भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना और (५) मन को एकाग्र करना। इस प्रकार भगवान् के निकट पहुँच कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन-नमस्कार किया। फिर अर्हत् अरिष्टनेमि से न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, अंजलिबद्ध सम्मुख होकर पर्युपासना करने लगे। थावच्चापुत्र का वैराग्य १३-थावच्चापुत्ते वि निग्गए, जहा मेहे तहेव धम्म सोच्चा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पायग्गहणं करेइ।जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा। जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पनवित्तए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा, ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तदारगस्स निक्खमणमणुमनित्था। नवरं निक्खमणाभिसेयं पासामो। तए णं से थावच्चापुत्ते तुसिणीए संचिट्ठइ। ___मेघकुमार की तरह थावच्चापुत्र भी भगवान् को वन्दना करने के लिए निकला। उसी प्रकार धर्म को श्रवण करके और हृदय में धारण करके जहाँ थावच्चा गाथापत्नी थी, वहाँ आया। आकर माता के पैरों को ग्रहण किया-चरणस्पर्श किया। जैसे मेघकुमार ने अपने वैराग्य का निवेदन किया था, उसी प्रकार थावच्चापुत्र की भी वैराग्य निवेदना समझनी चाहिए। माता जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत-सी आघवना-सामान्य कथन से, पन्नवणा-विशेष कथन से, सन्नवणा-धन-वैभव आदि का लालच दिखला कर, विनवणा-आजीजी करके, सामान्य कहने, विशेष कहने, ललचाने और मनाने में समर्थ न हुई, तब इच्छा न होने पर भी माता ने थावच्चापुत्र बालक का निष्क्रमण स्वीकार कर लिया अर्थात् दीक्षा की अनुमति दे दी। विशेष यह कहा कि-'मैं तुम्हारा दीक्षा-महोत्सव देखना चाहती हूँ।' तब थावच्चपुत्र मौन रह गया, अर्थात् उसने माता की दीक्षा-महोत्सव करने की बात मान ली।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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