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[ज्ञाताधर्मकथा
गिरिसिहर-नगर-गोउर-पासाय-दुवार-भवण-देउल-पडिसुयासयसहस्ससंकुलं सदं करेमाणे बारवई नगरि सब्भितर-बाहिरियं सव्वओ समंता से सद्दे विप्पसरित्था। .
____ तत्पश्चात् उस कौमुदी भेरी का ताड़न करने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, गुफा, विवर, कुहर, गिरिशिखर, नगर के गोपुर, प्रासाद, द्वार, भवन, देवकुल आदि समस्त स्थानों में, लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त होकर, भीतर और बाहर के भागों सहित सम्पूर्ण द्वारका नगरी को शब्दायमान करता हुआ वह शब्द चारों ओर फैल गया।
११-तए णं बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिनए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव' गणियासहस्साइं कोमुईयाए भेरीए सदं सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्टा जाव ण्हाया आविद्धवग्घारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोक्किनगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह-सीया-संदमाणीगया, अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखित्ता, कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउब्भवित्था।
तत्पश्चात् नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी में समुद्रविजय आदि दस दशार [बलदेव आदि महावीर, उग्रसेन आदि राजा, प्रद्युम्न आदि कुमार, शाम्ब आदि योद्धा, वीरसेन महासेन आदि बलशाली यावत्] अनेक हजार गणिकाएँ उस कौमुदी भेरी का शब्द सुनकर एवं हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट, प्रसन्न हुए। यावत् सबने स्नान किया। लम्बी लटकने वाली फूलमालाओं के समूह को धारण किया। कोरे नवीन वस्त्रों को धारण किया। शरीर पर चन्दन का लेप किया। कोई अश्व पर आरूढ़ हुए, इसी प्रकार कोई गज पर आरूढ़ हुए, कोई रथ पर, कोई पालकी में और कोई म्याने में बैठे। कोई-कोई पैदल ही पुरुषों के समूह के साथ चले और कृष्ण वासुदेव के पास प्रकट हुए-आए।
१२-तएणं कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव' अंतियं पाउब्भवमाणे पासइ। पासित्ता हट्ठ-तुटु जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरंगिणि सेणं सजेह विजयं च गंधहत्थि उवट्ठवेह।' ते वि तह त्ति उवट्ठवेंति, जाव तए णं से कण्हे वासुदेवे हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए विजयं च गंधहत्थि दुरूढे समाणे सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडकरवंदपरियाल-संपरिवुडे वारवतीए नयरीए मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेवरेवतगपव्वएजेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणं जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिट्ठनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता विजयाओ गंधहत्थीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता अरहं अरिट्ठनेमि पंचविहेणं अभग्गहेणं अभिगच्छइ, [ तंजहा सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए, एगसाडिय-उत्तरासंग-करणेणं, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणेणं] जेणामेव अरिट्ठनेमी तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण
१-२. पंचम अ. सूत्र ५