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[ज्ञाताधर्मकथा १४–तए णं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त जाव [ नाइ-नियग-सयण-संबन्धि-परियणेणं] सद्धिं संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी
तब गाथापत्नी थावच्चा आसन से उठी। उठकर महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली, महान् पुरुषों के योग्य तथा राजा के योग्य भेंट ग्रहण की। ग्रहण करके मित्र ज्ञाति आदि से परिवृत्त होकर जहाँ कृष्ण वासुदेव के श्रेष्ठ भवन का मुख्य द्वार का देशभाग था, वहाँ आई। आकर प्रतीहार द्वारा दिखलाये मार्ग से जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आई। दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को बधाया। बधाकर वह महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली, महान् पुरुषों के योग्य और राजा के योग्य भेंट सामने रखी। सामने रख कर इस प्रकार बोली
१५-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इढे जाव से णं संसारभयउव्विग्गे इच्छइ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स जाव [अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइत्तए। अहं णं निक्खमणसक्कारं करेमि। इच्छामि णं देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्त-मउड-चामराओ य विदिनाओ।
हे देवानुप्रिय! मेरा थावच्चापुत्र नामक एक ही पुत्र है। वह मुझे इष्ट है, कान्त है, यावत् वह संसार के भय से उद्विग्न होकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के समीप गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है। मैं उसका निष्क्रमण-सत्कार करना चाहती हूँ। अतएव हे देवानुप्रिय! प्रव्रज्या अंगीकार करने वाले थावच्चापुत्र के लिए आप छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें, यह मेरी अभिलाषा है। ।
१६-तए णं कण्हे वासुदेवे थावच्चागाहावइणिं एवं वयासी-'अच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिए! सुनिव्वुया वीसत्था, अहं णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि।'
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गाथापत्नी से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये! तुम निश्चिन्त और विश्वस्त रहो। मैं स्वयं ही थावच्चापुत्र बालक का दीक्षा-सत्कार करूँगा। कृष्ण द्वारा वैराग्यपरीक्षा
१७–तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेनाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी
___माणं तुमे देवाणुप्पिया! मुंडे भवित्ता पव्वयाहि, भुंजाहिणं देवाणुप्पिया! विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छायापरिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं णो संचाएमिवाउकायं उवरिमेणं निवारित्तए।अण्णे णं देवाणुप्पियस्स जं किंचि वि आबाहं या वाबाहं वा उप्पाएइ तंसव्वं निवारेमि।
१. प्र. अ. सूत्र १५६