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तृतीय अध्ययन : अंडक]
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करता है [कांक्षा-परदर्शन की या लौकिक फल की अभिलाषा करता है, या क्रिया के फल में सन्देह करता है] या कलुषता को प्राप्त होता है, वह इसी भव में बहुत-से-साधुओं, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा हीलना करने योग्य-गच्छ से पृथक् करने योग्य, मन से निन्दा करने योग्य, लोक-निन्दनीय, समक्ष में ही गरे (निन्दा) करने योग्य और परिभव (अनादर) के योग्य होता है। पर भव में भी वह बहुत दंड पाता है यावत् [वह बार-बार मूंडा जाता है, बार-बार तर्जना और ताड़ना का भागी होता है, बार-बार बेड़ियों में जकड़ा जाता है, बार-बार घोलना पाता है, उसे बार-बार-मातृमरण, पितृमरण, भ्रातृमरण, भगिनीमरण, पत्नीमरण, पुत्रमरण, पुत्रीमरण और पुत्रवधुमरण का दुःख भोगना पड़ेगा।
वह बहुत दरिद्रता, अत्यन्त दुर्भाग्य, अतीव इष्टवियोग, अत्यन्त दुःख एवं दुर्मनस्कता का भाजन बनेगा। अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार में] परिभ्रमण करेगा। श्रद्धा का सुफल
२१-तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तंसि मऊरीअंडयंसि निस्संकिए, 'सुवत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सइ' त्ति कट्ट तं मऊरीअंडयंसि अभिक्खणं अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ जाव नो टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरीअंडए अणुव्वत्तिजमाणे जाव अटिट्टियाविजमाणे तेणं कालेणं तेणं समएणं उब्भिन्ने मऊरीपोयए एत्थ जाए।
(इसके विपरीत) जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ आया। आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में नि:शंक रहा। मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरी-बालक होगा' इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार-बार उलटा-पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं [हिलायाडुलाया, छुआ नहीं] आदि। इस कारण उलट-पलट न करने से और न बजाने से उस काल और उस समय में अर्थात् समय का परिपाक होने पर वह अंडा फूटा और मयूरी के बालक का जन्म हुआ।
२२-तएणं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरीपोययं पासइ, पासित्ता हट्टत? मऊरपोसए सद्दावेइ। सद्दावित्ता एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया! इमं मऊरपोययं बहूहिं मऊरपोसणपाउग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्डेह, नट्टल्लगं च सिक्खावेह।
तएणं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एयमढेपडिसुणेति, पडिसुणित्तातं मऊरपोययं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति।उवागच्छित्ता तं मऊरपोयगंजाव नट्टल्लगं सिक्खावेंति।
___ तत्पश्चात् जिनदत्त के पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा। देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर मयूर-पोषकों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! तुम मयूर के इस बच्चे को अनेक मयूर को पोषण देने योग्य पदार्थों से अनुक्रम से संरक्षण करते हुए और संगोपन करते हुए बड़ा करो और नृत्यकला सिखलाओ।
१.तृ. अ. १८