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________________ १४४] [ज्ञाताधर्मकथा तब उन मयूरपोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की यह बात स्वीकार की। उस मयूर-बालक को ग्रहण किया। ग्रहण करके जहाँ अपना घर था वहाँ आये। आकर उस मयूर-बालक को यावत् नृत्य कला सिखलाने लगे। २३–तए णं से मऊरपोयए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते लक्खणवंजणगुणोववेए माणुम्माण-पमाणपडिपुण्ण-पक्ख-पेहुण-कलावे विचित्तपिच्छे सयचंदए नीलकंठए नच्चणीसीलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाइं नट्टल्लगसयाई केकारवसयाणि य करेमाणे बिहरइ। तत्पश्चात् मयूरी का बच्चा बचपन से मुक्त हुआ। उसमें विज्ञान का परिणमन हुआ। युवावस्था को प्राप्त हुआ। लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त हुआ। चौड़ाई रूप मान, स्थूलता रूप उन्मान और लम्बाई रूप प्रमाण से उसके पंखों और पिच्छों (पंखों) का समूह परिपूर्ण हुआ। उसके पंख रंग-बिरंगे हो गए। उनमें सैकड़ों चन्द्रक थे। वह नीले कंठ वाला और नृत्य करने के स्वभाव वाला हुआ। वह चुटकी बजाने से अनेक प्रकार के सैकड़ों केकारव करता हुआ विचरण करने लगा। २४-तए णं ते मऊरपोसगा तं मऊरपोययं उम्मुक्कबालभावं जाव करेमाणं पासित्ता तं मऊरपोयगंगेण्हंति।गेण्हित्ता जिणदत्तस्स पुत्तस्स उवणेन्ति।तएणं से जिणदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए मऊरपोयगं उम्मुक्कबालभावंजाव करेमाणं पासित्ता हट्ठतुढे तेसिं विउलंजीवियारिहं पीइदाणं जाव (दलयइ, दलइत्ता) पडिविसज्जेइ। तत्पश्चात् मयूरपालकों ने उस मयूर के बच्चे को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता हुआ देख कर उस मयूर-बच्चे को ग्रहण किया। ग्रहण करके जिनदत्त के पुत्र के पास ले गये। तब जिनदत्त के पुत्र सार्थवाहदारक ने मयूर-बालक को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता देखकर, हृष्ट-तुष्ट होकर उन्हें जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर विदा किया। २५-तएणं से मऊरपोयए जिणदत्तपुत्तेणंएगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीय णंगोला (ल) भंगसिरोधरे सेयावंगे अवयारियपइन्नपक्खे उक्खित्तचंदकाइयकलावे केक्काइयसयाणि विमुच्चमाणे णच्चइ। तए णं से जिणदत्तपुत्ते तेणं मऊरपोयएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव(तिग-उचक्कचच्चर-चउम्मुह-महापह) पहेसु सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य पणिएहि य जयं करेमाणे विहरइ। ___ तत्पश्चात् वह मयूर-बालक जिनदत्त के पुत्र द्वारा एक चुटकी बजाने पर लांगूल के भंग के समान अर्थात् जैसे सिंह आदि अपनी पूंछ को टेढ़ी करते हैं उसी प्रकार अपनी गर्दन टेढ़ी करता था। उसके शरीर पर पसीना आ जाता था अथवा उसके नेत्र के कोने श्वेत वर्ण के हो गये थे। वह बिखरे पिच्छों वाले दोनों पंखों को शरीर से जुदा कर लेता था अर्थात् उन्हें फैला देता था। वह चन्द्रक आदि से युक्त पिच्छों के समूह को ऊँचा कर
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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