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[ज्ञाताधर्मकथा प्राप्ति होगी? विचिकित्सा को प्राप्त हुआ अर्थात् मयूरी-बालक हो जाने पर भी इससे क्रीडा रूप फल प्राप्त होगा या नहीं, इस प्रकार फल में संदेह करने लगा, भेद को प्राप्त हुआ, अर्थात् सोचने लगा कि इस अंडे में बच्चा है भी या नहीं? कलुषता अर्थात् बुद्धि की मलिनता को प्राप्त हुआ। अतएव वह विचार करने लगा कि मेरे इस अंडे में क्रीडा करने का मयूरी-बालक उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा?
इस प्रकार विचार करके वह बार-बार उस अंडे को उद्वर्तन करने लगा अर्थात् नीचे का भाग ऊपर करके फिराने लगा, घुमाने लगा, आसारण करने लगा अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह रखने लगा, संसारण करने लगा अर्थात् बार-बार स्थानान्तरित करने लगा, चलाने लगा, हिलाने लगा, घट्टन-हाथ से स्पर्श करने लगा, क्षोभण-भूमि को खोदकर उसमें रखने लगा और बार-बार उसे कान के पास ले जाकर बजाने लगा। तदनन्तर वह मयूरी-अंडा बार-बार उद्वर्त्तन करने से यावत् [परिवर्तन करने से, आसारण-संसारण करने से, चलाने, हिलाने, स्पर्श करने से, क्षोभण करने से] बजाने से पोचा हो गया-निर्जीव हो गया।
१९-तएणं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अन्नया कयाइंजेणेव से मऊरीअंडए तेणेव अवागच्छइ।उवागच्छित्ता तंमऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासइ।पासित्ता'अहोणं ममं एस कीलावणए ण जाए' ति कट्ट ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए।
सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक किसी समय जहाँ मयूरी का अंडा था वहाँ आया। आकर उस मयूरी-अंडे को उसने पोचा देखा। देखकर 'ओह! यह मयूरी का बच्चा मेरी क्रीडा करने के योग्य न हुआ' ऐसा विचार करके खेदखिन्नचित्त होकर चिन्ता करने लगा। उसके सब मनोरथ विफल हो गए। शंकाशीलता का कुफल
२०–एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथी वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु, छज्जीवनिकाएसु, निग्गंथे पावयणे संकिए जाव (कंखिए वितिगिंछसमावण्णे) कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणंसमणीणं बहूणं सावगाणं साविगाणं हीलणिजे खिंसणिजे गरिहणिजे, परिभवणिजे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य जाव (बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंदुबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहूणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भजामरणाणि यबहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि धूयमरणाणि च बहूणि सुण्हामरणाणि य,
__बहूणि दारिदाणं बहूणं दोहग्गाणं बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोमणस्साणं आभागी भविस्सति, अणादियं चणं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं भुजो भुजो) अणुपरियट्टिस्सइ।
आयुष्मन् श्रमणो! इस प्रकार जो साधु या साध्वी आचार्य या उपाध्याय के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करके पाँच महाव्रतों के विषय में अथवा षट् जीवनिकाय के विषय में अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंका