________________
[१३७
तृतीय अध्ययन : अंडक] चौसठ कलाओं में पंडिता थी। गणिका के चौसठ गुणों से युक्त थी। उनतीस प्रकार की विशेष क्रीडाएँ करने वाली थी। कामक्रीडा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी। उसके सोते हुए नौ अंग (दो कान, दो नासिकापुट, जिह्वा, त्वचा और मन) जाग्रत हो चुके थे अर्थात् वह युवावस्था को प्राप्त थी। अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में निपुण थी। वह ऐसा सुन्दर वेष धारण करती थी, मानो श्रृंगाररस का स्थान हो। सुन्दर गति, उपहास, वचन, चेष्टा, विलास (नेत्रों की चेष्टा) एवं ललित संलाप (बात-चीत) करने में कुशल थी। योग्य उपचार (व्यवहार) करने में चतुर थी। उसके घर पर ध्वजा फहराती थी। एक हजार देने वाले को प्राप्त होती थी, अर्थात् उसका एक दिन का शुल्क एक हजार रुपया था। राजा के द्वारा उसे छत्र, चामर और बाल व्यजन (विशेष प्रकार का चामर) प्रदान किया गया था। वह कर्णीरथ नामक वाहन पर आरूढ होकर-आती जाती थी, यावत् एक हजार गणिकाओं का आधिपत्य करती हुई रहती थी, (वह उनका नेतृत्व, स्वामित्व, पालकत्व एवं अग्रेसरत्व करती थी। सभी को अपनी आज्ञा के अनुसार चलाती थी। वह उनकी सेनाध्यक्षा थी। उनका पालन-पोषण करती थी। नृत्य, गीत और वाद्यों में मस्त रहती थी। तंत्री, तल, ताल, घन, मृदंग आदि बाजों की ध्वनि में डूबी वह देवदत्ता विपुल भोग भोग रही थी)। गणिका के साथ विहार
७-तए णं. तेसिं सत्थवाहदारगाणं अनया कयाइ पुव्वावरण्हकाल-समयंसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणाणं आयंताणंचोक्खाणं परमसुइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पजित्था-'तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कल्लं जाव' जलंते विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धूव-पुष्फगंध-वत्थं गहाय देवदत्ताइ गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उजाणसिरि पच्चणुभवमाणाणं विहरित्तए', त्ति कट्ट अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेन्ति, पडिसुणित्ता कल्लं पाउब्भूए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेन्ति, सदावित्ता एवं वयासी
___ तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय मध्याह्नकाल में भोजन करने के अनन्तर, आचमन करके, हाथ-पैर धोकर स्वच्छ होकर, परम पवित्र होकर सुखद आसनों पर बैठे। उस समय उन दोनों में आपस में इस प्रकार की बात-चीत हुई–'हे देवानुप्रिय! अपने लिए यह अच्छा होगा कि कल यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम, और स्वादिम तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र साथ में लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरें।' इस प्रकार-कहकर दोनों ने एक दूसरे की बात स्वीकार की। स्वीकार करके दूसरे दिन सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाकर इस प्रकार कहा
८-'गच्छह णं देवाणुप्पिया! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेह। उवक्खडित्तातं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धूव-पुष्पंगहाय जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे, जेणेव णंदा पुक्खरिणी, तेणामेव उवागच्छह। उवगच्छित्ता णंदापुक्खरिणीओ अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह।आहणित्ता आसित्त-संमजिओवलित्तंजाव (पंचवण्ण-सरससुरभि-मुक्क
१. प्र. अ. सूत्र २८