SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ ] [ ज्ञाताधर्मकथा अन्नमन्नमणुव्वयया अन्नमण्णच्छंदाणुवत्तया अन्नमन्नहियइच्छियकारया अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिजाई पच्चणुभवमाणा विहरंति । उस चम्पानगरी में दो सार्थवाह - पुत्र निवास करते थे । वे इस प्रकर थे - जिनदत्त का पुत्र और सागरदत्त का पुत्र । दोनों साथ ही जन्मे थे, साथ ही बड़े हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही दारदर्शीविवाहित हुए थे अथवा एक साथ रहते हुए एक-दूसरे के द्वार को देखने वाले थे-साथ- साथ घर में प्रवेश करते थे। दोनों का परस्पर अनुराग था । एक, दूसरे का अनुसरण करता था, एक, दूसरे की इच्छा के अनुसार चलता था। दोनों एक दूसरे के हृदय का इच्छित कार्य करते थे और एक-दूसरे के घरों में कृत्य - नित्यकृत्य और करणीय-नैमित्तिक कार्य - कभी-कभी करने योग्य कृत्य करते हुए रहते थे । मित्रों की प्रतिज्ञा ५ - तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविद्वाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था - ' जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहिं एगयझो समेच्या णित्थरियव्वं ।' ति कट्टु 'अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुणेन्ति । पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था । तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए, एक के घर में आये और एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुआ - 'हे देवानुप्रिय ! जो भी हमें सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश गमन प्राप्त हो, उस सब का हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए।' इस प्रकार कह कर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा अंगीकार की। प्रतिज्ञा अंगीकार करके अपने-अपने कार्य में लग गये। गणिका देवदत्ता ६ – तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ, अड्डा जाव पउदित्ता वित्ता वित्थिन्न- विउल-भवण-सयणासण- जाण - वाहणा बहुधण - जायरूव-रयया आओगपओगसंपउत्ताविच्छड्डियपउर-भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसट्ठिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रड्गुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयार-कुसला णवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारस-देसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- हसिय- भणिय-विहियविलासललियसंलाव- निउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियझया सहस्सलंभा विइन्नछत्त - चामर - बालवियणिया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था, बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं जाव (पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा - ईसर- सेणावच्चं कारेमाणी पालेमाणी महायाऽऽहय- नट्ट - गीय-वाइय-तंतीतल-तालघण-मुइंग-पटुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी ) विहरइ । उस चम्पानगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी । वह समृद्ध थी, [तेजस्विनी थी, प्रख्यात थी । उसके यहाँ विस्तीर्ण और विपुल भवन, शय्या, आसन, रथ आदि यान और अश्व आदि वाहन थे। स्वर्ण और चाँदी आदि धन की बहुतायत थी । लेन-देन किया करती थी । उसके यहाँ इतना बहुत भोजन - पान तैयार होता था कि जीमने के पश्चात् भी बहुत-सा बचा रहता था, अतः ] वह बहुत भोजन-पान वाली थी।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy