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[ज्ञाताधर्मकथा पुष्फपुंजोवयावकलियं कालागरु-पवर-कुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरसि-मघमघंतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर-गंधियं गधवट्टिभूयं ) करेह, करित्ता अम्हे पडिवालेमाणा चिट्ठह' जाव चिटुंति।
___'देवानुप्रियो! तुम जाओ और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करो। तैयार करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम को तथा धूप, पुष्प आदि को लेकर जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान है और जहाँ नन्दा पुष्करिणी है, वहाँ जाओ। जाकर नन्दा पुष्करिणी के समीप स्थूणामंडप (वस्त्र से आच्छादित मंडप) तैयार करो। जल सींच कर, झाड़-बुहार कर, लीप कर यावत् [पाँच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, काले अगर, कुंदुरुक्क, तुरुष्क (लोभान) तथा धूप के जलाने से महकती हुई उत्तम गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की वट्टी के समान] बनाओ। यह सब करके हमारी बाट-राह देखना।' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुष आदेशानुसार कार्य करके यावत् उनकी बाट देखने लगे।
९-तए णं सत्थवाहदारगा दोच्चपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं समखुर-वालिहाण-समलिहियतिक्खग्गसिंगएहिं रययामयसुत्तरज्जुय-पवरकंचण-खचिय-णत्थपग्गहोवग्गहिएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणि-रयण-कंचण-घंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोववेयं जुत्तमेव पवहणं उवणेह।' ते वि तहेव उवणेन्ति।
तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्रों ने दूसरी बार (दूसरे) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा'शीघ्र ही एक समान खुर और पूंछ वाले, एक से चित्रित तीखे सींगों के अग्रभाग वाले, चाँदी की घंटियों वाले; स्वर्णजटित सूत की डोरी की नाथ से बंधे हुए तथा नीलकमल की कलंगी से युक्त श्रेष्ठ जवान बैल जिसमें जुते हों, नाना प्रकार की मणियों की, रत्नों की और स्वर्ण की घंटियों के समूह से युक्त तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाला रथ ले आओ। वे कौटुम्बिक पुरुष आदेशानुसार रथ उपस्थित करते हैं।
१०-तए णं ते सत्थवाहदारगा ण्हाया जाव (कयबलिकम्मा कयकोउस-मंगलपायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकिय-) सरीरा पवहणं दुरूहंति, दुरूहित्ता जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेन्ति।
तएणंसा देवदत्ता गणिया सत्थवाहदारए एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्ठित्ता सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता से सत्थवाहदारए एवं वयासी'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किमिहागमणप्पओयणं?'
तत्पश्चात् उन सार्थवाहपुत्रों ने स्नान किया, यावत् [बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त किया, थोड़े और बहुमूल्य अलंकारों से शरीर को अलंकृत किया और] वे रथ पर आरूढ हुए। रथ पर आरूढ होकर जहाँ देवदत्ता गणिका का घर था, वहाँ आये। आकर वाहन (रथ) से नीचे उतरे और देवदत्ता गणिका के घर