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[ज्ञाताधर्मकथा
किये जाते देखता है। देखकर कंचुकी पुरुष को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रिय! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र-महोत्सव है ? स्कंद (कार्तिकेय) का महोत्सव है? या रुद्र, शिव, वैश्रमण (कुबेर), नाग, यक्ष, भूत, नदी, तड़ाग, वृक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि (पर्वत) की यात्रा है ? जिससे बहुत से उग्र-कुल तथा भोग-कुल आदि के सब लोग एक ही दिशा में और एक ही ओर मुख करके निकल रहे हैं ? कंचुकी का निवेदन
१११-तए णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स गहियागमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासी-नोखलु देवाणुप्पिया! अज रायगिहे नयरे इंदमहेति वा जाव गिरिजत्ताओ वा, जंणं एए उग्गा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे इहमागते, इह संपत्ते, इह समोसढे, इह चेव रायगिहे नरये गुणसिलए चेइए अहापडि० जाव विहरति।
तब उस कंचुकी पुरुष ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन का वृत्तान्त जानकर मेघकुमार को इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! आज राजगृह नगर में इन्द्रमहोत्सव या यावत् गिरियात्रा आदि नहीं है कि जिसके निमित्त यह उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सब लोग एक ही दिशा में, एकाभिमुख होकर जा रहे हैं। परन्तु देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् महावीर धर्म-तीर्थ की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले यहाँ आये हैं, पधार चुके हैं, समवसृत हुए हैं और इसी राजगृह नगर में, गुणशील चैत्य में यथायोग्य अवग्रह की याचना करके विचर रहे हैं।
११२-तए णं से मेहे कंचुइज्जपुरिसस्स अंइिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह।'
तह त्ति उवणेति।
तत्पश्चात् मेघकुमार कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होता हुआ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो। . वे कौटुम्बिक पुरुष 'बहुत अच्छा' कह कर रथ जोत लाते हैं। मेघ की भगवत्-उपासना
११३–तए णं मेहे ण्हाए जाव' सव्वालंकारविभूसिए चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भड-चडगर-विंद-परियाल-संपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मझंमज्झेणं निग्गच्छति। निग्गच्छिता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं पडागातिपडागं विजाहरचारणे भए
१-२. औपपातिक सूत्र २७