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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
[५३ उत्तेहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं उवगिजमाणे उवगिजमाणे उवलालिजमाणे उवलालिज्जमाण सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरति।
__तत्पश्चात् मेघकुमार श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर रहा हुआ, मानो मृदंगों के मुख फूट रहे हों, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए, बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुआ तथा क्रीड़ा करता हुआ, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगता हुआ रहने लगा। भगवान् का आगमन
१०८-तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणे विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए जाव' विहरति।
___ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव जाते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहां राजगृह नगर था और जहां गुणशील नामक चैत्य था, यावत् [वहाँ पधारे। पधार कर यथोचित स्थान ग्रहण किया। ग्रहण करके] ठहरे।
१०९-तएणं से रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया बहुजणसद्देति वा (जणवूहे ति वा, जणबोले ति वा, जणकलकले ति वा, जणुम्मीति वा, जणुक्कलिया ति वा, जणसन्निवाए ति वा,) जाव' बहवे उग्गा भोगा जाव रायगिहस्स नगरस्स मझमझेणं एगदिसिंएगाभिमुहा निग्गच्छंति।इमंच णं मेहे कुमारे उप्पिंपासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुयंगमत्थएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे रायमग्गं च आलोएमाणे एवं च णं विहरति।
तत्पश्चात् राजगृह नगर में श्रृंगाटक-सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे, चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा। यावत् [लोग इकट्ठे होने लगे, लोग अव्यक्त और व्यक्त वाणी में बातें करने लगे, भीड़ हो गई, लोग इधर-उधर से आकर एक स्थान पर जमा होने लगे,] बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर एक ही दिशा में, एक ही ओर मुख करके निकलने लगे। उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था। मानो मृदंगों का मुख फूट रहा हो, इस प्रकार गायन किया जा रहा था। यावत् मनुष्य संबंधी कामभोग भोग रहा था और राजमार्ग का अवलोकन करता-करता विचर रहा था। मेघकुमार की जिज्ञासा
११०-तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमुहे पासति पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति, सहावित्ता एवं वयासी-'किं णं भो देवाणुप्पिया! अज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा, खंदमहेति वा, एवंरुद्द-सिव-वेसमण-नाग-जक्ख-भूय-नई-तलाय-रुक्ख-चेतियपव्वय-उज्जाण-गिरिजत्ताइ वा? जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव' एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छंति?'
तब वह मेघकुमार उन बहुतेरे उग्रकुलीन भोगकुलीन यावत् सब लोगों को एक ही दिशा में मुख १. प्र. अ. सूत्र ४ २-३-४-५. औप. सूत्र २७