________________
प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ]
[५१ तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने मेघकुमार को बहत्तर कलाओं में पंडित यावत् विकालचारी हुआ देखा। देखकर आठ उत्तम प्रासाद बनवाए। वे प्रासाद बहुत ऊँचे थे। अपनी उज्ज्वल कान्ति के समूह से हँसते हुए से प्रतीत होते थे। मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से विचित्र थे। वायु से फहराती हुई और विजय को सूचित करने वाली वैजयन्ती पताकाओं से तथा छत्रातिछत्रों (एक दूसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से युक्त थे। वे इतने ऊँचे थे कि उनके शिखर आकाशतल का उल्लंघन करते थे। उनकी जालियों के मध्य में रत्नों के पंजर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो उनके नेत्र हों। उनमें मणियों और कनक की भूमिकाएँ (स्तूपिकाएँ) थीं। उनमें साक्षात् अथवा चित्रित किये हुए शतपत्र और पुण्डरीक कमल विकसित हो रहे थे। वे तिलक रत्नों एवं अर्द्ध चन्द्रोंएक प्रकार के सोपानों से युक्त थे, अथवा भित्तियों में चन्दन आदि के आलेख (हाथे) चर्चित थे। नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत थे। भीतर और बाहर से चिकने थे। उनके आंगन में सुवर्णमय रुचिकर वालुका बिछी थी। उनका स्पर्श सुखप्रद था। रूप बड़ा ही शोभन था। उन्हें देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती थी। तावत् [वे महल दर्शनीय सुन्दर एवं] प्रतिरूप थे-अत्यन्त मनोहर थे।
१०३–एगचणं महं भवणं कारेंति-अणेगखंभसयसन्निविट्ठलीलट्ठिय-सालभंजियागं अब्भुग्गय-सुकय-वइरवेइया-तोरण-वररइय-सालभंजिया-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-संठितपसत्थ-वेरुलिय-खंभ-नाणामणि-कणग-रयणखचितउजलं बहुसम-सुविभत्त-निचियरमणिज्ज-भूमिभागं ईहामिय०जाव' भत्तिचित्तं खंभुग्गय-वइरवेइयापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुयलजुत्तं पिव अच्चीसहस्स-मालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचण-रयणथूभियागं नाणाविहपंचवन्नघंटा-पडाग-परिमंडियग्गसिरं धवलमरीचिकवयं विणिम्मुयंतं लाउल्लोइयमहियं जाव गंधवट्टिभूयं पासाईयं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं।
__ और एक महान् भवन (मेघकुमार के लिए) बनवाया गया। वह अनेक सैंकड़ों स्तंभों पर बना हुआ था। उसमें लीलायुक्त अनेक पुतलियाँ स्थापित की हुई थीं। उसमें ऊँची और सुनिर्मित वज्ररत्न की वेदिका थी और तोरण थे। मनोहर निर्मित पुतलियों सहित उत्तम, मोटे एवं प्रशस्त वैडूर्य रत्न के स्तंभ थे, वे विविध प्रकार के मणियों, सुवर्ण तथा रत्नों से खचित होने के कारण उज्ज्वल दिखाई देते थे। उनका भूमिभाग बिलकुल सम, विशाल, पक्का और रमणीय था। उस भवन में ईहामृग, वृषभ, तुरग, मनुष्य, मकर आदि के चित्र चित्रित किए हुए थे। स्तंभों पर बनी वज्ररत्न की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ता था। समान श्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्र द्वारा चलते दीख पड़ते थे। वह भवन हजारों किरणों से व्याप्त और हजारों चित्रों से युक्त होने से देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान था। उसे देखते ही दर्शक के नयन उसमें चिपक-से जाते थे। उसका स्पर्श सुखप्रद था और रूप शोभासम्पन्न था। उसमें सुवर्ण, मणि एवं रत्नों की स्तूपिकाएँ बनी हुई थीं। उसका प्रधान शिखर नाना प्रकार की, पांच वर्णों की एवं घंटाओं सहित पताकाओं से सुशोभित था। वह चहुँ
ओर देदीप्यमान किरणों के समूह को फैला रहा था। वह लिपा था, धुला था और चंदेवा से युक्त था। यावत् वह भवन गंध की वर्ती जैसा जान पड़ता था। वह चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था-अतीव मनोहर था। १-२. प्र. अ. सूत्र ३१