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________________ मान, माया, लोभ रूप जो परिणाम है, वह कर्मचेतना है।शुभ और अशुभ कर्म के उदय से जो सुख और दुःखरूप परिणाम होता है, वह कर्मफलचेतना है। दार्शनिकों ने इन तीनों प्रकार की चेतनाओं को अन्य रूप से कहा है। ___ आगमकारों ने संसारी जीवों की दृष्टि से त्रस और स्थावर—ये दो भेद किये हैं। जिस जीव को त्रस नामकर्म का उदय है वह त्रस जीव है और जिस जीव को स्थावर नामकर्म का उदय है वह स्थावर जीव है। गतिबस और लब्धित्रस ये त्रस के दो प्रकार हैं। जिनमें स्वतन्त्र रूप से गमन करने की शक्तिविशेष हो, वह गतित्रस है और जो सुख-दुःख की इच्छा से गमन करते हैं, वे लब्धित्रस हैं। तेजस्काय और वायुकाय को गतित्रस तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को लब्धिवस माना गया है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने त्रस और स्थावर शब्दों का अर्थ दो प्रकार से किया है। एक क्रिया की दृष्टि से तो दूसरा कर्म के उदय की दृष्टि से। ___ कर्म के उदय की दृष्टि से तेजस्काय और वायुकाय भी स्थावर ही हैं। इस दृष्टि से स्थावर के ५ भेद प्रतिपादित हैं । त्रस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय—ये चार प्रकार हैं। संसार के जितने भी जीव हैं, वे त्रस और स्थावर में समाविष्ट हो जाते हैं। गति की दृष्टि से संसारी जीवों को चार भागों में विभक्त किया गया है—नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। नारक गति के जीवों के परिणाम और लेश्या अशुभ और अशुभतर होती है। जब पापों का पुंज अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है जब जीव नरक में जाकर उत्पन्न होता है। नरक में भयंकर शीत, ताप, क्षुधा, तृषा प्रभृति वेदनाएँ होती हैं। नरकभूमियों में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श आदि अशुभ होते हैं। नारकों के शरीर अशुचिकर और वीभत्स होते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है और उसमें अशुचिता की ही प्रधानता होती है। नरक के जीव मर कर पुनः नरक में पैदा नहीं होते। मनुष्य और तिर्यञ्च ही मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं। ____नारक, मनुष्य और देव को छोड़कर इस विराट् विश्व में जितने भी जीव हैं, वे सभी तिर्यञ्च हैं । तिर्यञ्च एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं । तिर्यञ्चों में पाँच स्थावर (एकेन्द्रिय), द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सभी होते हैं। पंचेन्द्रिय में जलचर-स्थलचर-खेचर-उरचर-भुजचर जीवों का समावेश है। तिर्यञ्च जीवों का विस्तार बहुत है। वे अनन्त हैं। मूल आगमों में एक-एक के विविध प्रकार प्रतिपादित हैं। ___ मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जीव को मनुष्यशरीर प्राप्त होता है। आत्मविकास की परिपूर्णता मानव ही कर सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने मानवगति की महिमा गाई है। मानवों को आर्य और अनार्य इन दो भागों में विभक्त किया गया है। जो हिंसा आदि दुष्कृत्यों से दूर रहता है वह आर्य है और इसके विपरीत व्यक्ति अनार्य है। आर्यों के भी ऋद्धिप्राप्त आर्य और अनऋद्धिप्राप्त आर्य—ये दो प्रकार हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्यों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और चारण लब्धिधारी मुनि आदि हैं। आर्यों के भी क्षेत्र-आर्य, जाति-आर्य, कुल-आर्य, कर्म-आर्य, शिल्प-आर्य, भाषा-आर्य, ज्ञान-आर्य, दर्शन-आर्य और चारित्र-आर्य, ये नौ प्रकार किये गये हैं। इन भेदों का मूल आधार गुण और कर्म हैं। अन्यान्य आधारों पर भी मनुष्यों के भेदों का निरूपण किया गया है। भौतिक सुख और समृद्धि की अपेक्षा मानवगति से देवगति श्रेष्ठ है। देवगति में पुण्य का प्रकर्ष होता है। उसमें लेश्याएं प्रश्स्त होती हैं। वैक्रिय शरीर होता है, जिसके कारण वे चाहे जैसा रूप बना लेते हैं। देवों के भी [८७]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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