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उपमान, शब्द अर्थापत्ति और अभाव, ये छह प्रमाण माने हैं। बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण माने हैं। जैन दार्शनिक विज्ञों ने प्रमाण के तीन और भेद माने हैं। आचार्य सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण माने हैं तो उमास्वाति ने, वादी देवसूरि ने और आचार्य हेमचन्द्र ने प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो प्रमाण स्वीकार किये हैं। मगर यह वस्तुतः विवक्षाभेद हैं। इसमें मौलिक अन्तर नहीं है।
भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ४ में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगमन ये चार प्रकार माने हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण के इन्द्रियप्रत्यक्ष, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष—ये दो भेद किये हैं। अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत्—ये तीन प्रकार प्रतिपादित किये हैं। उपमान प्रमाण के भेद-प्रभेद नहीं हैं। आगम प्रमाण के लौकिक और लोकोत्तर—ये भेद बताकर लौकिक में भारत, रामायण आदि ग्रन्थों का सूचन किया है तो लोकोत्तर आगम में द्वादशांगी का निरूपण किया है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम में प्रमाण के सम्बन्ध में चिन्तन है। यह चिन्तन अनुयोगद्वारसूत्र में और अधिक विस्तार से प्रतिपादित हैं।
भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक ४ में जीवों के विविध भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया गया है। जीवविज्ञान जैनदर्शन की अपनी देन है। जितना गहराई से जैनदर्शन ने जीवों के भेद-प्रभेद पर चिन्तन किया है, उतना सूक्ष्म चिन्तन अन्य पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिक नहीं कर सके हैं। वेदों में पृथ्वी देवता, आपो देवता आदि के द्वारा यह कहा गया है कि वे एक-एक हैं, पर जैनदर्शन ने पृथ्वी आदि में अनेक जीव माने हैं, यहाँ तक कि मिट्टी के कण, जल की बूंद और अग्नि की चिनगारी में असंख्य जीव होते हैं। उनका एक शरीर दृश्य नहीं होता, अनेक शरीरों का पिण्ड ही हमें दिखलाई देता है।
जीव का मुख्य गुण चेतना है । चेतना सभी जीवों में उपलब्ध है। जिसमें चेतना है वह जीव है। फिर भले ही वह सिद्ध हो या सांसारिक। चेतना सिद्ध में भी है और संसारी जीव में भी है। चेतना की दृष्टि से सिद्ध और संसारी जीव में भेद नहीं है। आगमिक दृष्टि से जीव के बोधरूप व्यापार को चेतना कहा है। वह बोधरूप व्यापार सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार का है। जब चेतना वस्तु के विशेष धर्मों को गौण कर सामान्य धर्म को ग्रहण करती है तब दर्शनचेतना कहलाती है और जो चेतना सामान्य धर्मों को गौण करके वस्तु के विशेष धर्मों को मुख्य रूप से ग्रहण करती है, वह ज्ञानचेतना कहलाती है। ज्ञानचेतना ही विशेष बोधरूप व्यापार कहलाती है। एक ही चेतना कभी सामान्य तो कभी विशेषात्मक होती है।
दार्शनिकों ने चेतना के ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना—ये तीन प्रकार भी माने हैं। किसी भी वस्तु-तत्त्व को जानने के लिए चेतना का जो ज्ञानरूप परिणाम है, वह ज्ञानचेतना है, कषाय के उदय से क्रोध,
१. न्यायावतार २८
तत्त्वार्थसूत्र ३. प्रमाणनयतत्त्वालोक २/९१ ४. प्रमाणमीमांसा १/९, १० ५. (क) दशवकालिकसूत्र, अगस्त्यसिंहचूर्णि, पृष्ठ ७४
(ख) दशवैकालिकसूत्र, जिनदासचूर्णि, पृष्ठ १३६
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