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उवसंहारो : उपसंहार
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के शतक, उद्देशक और पदों का परिमाण-निरूपण
१. सव्वाए भगवतीए अट्ठत्तीसं सयं सयाणं १३८ । उद्देसगाणं १९२५॥
[१] सम्पूर्ण भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र के कुल १३८ शतक हैं और १९२५ (एक हजार नौ सौ पच्चीस) उद्देशक हैं।
२. चुलसीतिसयसहस्सा पयाण पवरवरणाण-दंसीहिं।
भावाभावमणंता पण्णत्ता एत्थमंगम्मि ॥१॥ __ [२] प्रवर (सर्वश्रेष्ठ) ज्ञान और दर्शन के धारक महापुरुषों ने इस अंगसूत्र में ८४ लाख पद कहे हैं तथा विधि-निषेधरूप भाव तो अनन्त (अपरिमित) कहे हैं ॥ १ ॥ अन्तिम मंगल : श्रीसंघ-जयवाद
३. तव-नियम-विणयवेलो जयति सया नाणविमलविपुलजलो।
___हेउसयविउलवेगो संघसमुद्दो गुणविसालो ॥२॥ [३] गुणों से विशाल संघरूपी समुद्र सदैव विजयी होता है, जो ज्ञानरूपी विमल और विपुल जल से परिपूर्ण है, जिसकी तप, नियम और विनयरूपी वेला है और जो सैकड़ों हेतुओं-रूप प्रबल वेग वाला है ॥२॥ पुस्तक लिपिकार द्वारा किया गया नमस्कार
[नमो गोयमादीण गणहराणं। नमो भगवतीए विवाहपन्नत्तीए।
नमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स ॥१॥ [गौतम आदि गणधरों को नमस्कार हो। भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति को नमस्कार हो तथा द्वादशांगगणिपिटक को नमस्कार हो ॥१॥
कुमुयसंठियचलणा, अमलियकोरेंटबिंटसंकासा।
सुयदेवया भगवती मम मतितिमरं पणासेउ॥२॥] कच्छप के समान संस्थित चरण वाली तथा अम्लान (नहीं मुझाई हुई) कोरंट की कली के समान, भगवती श्रुतदेवी मेरे मति-(बुद्धि के अथवा मति-अज्ञानरूपी) अन्धकार को विनष्ट करे ॥ २ ॥]