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छठेसन्निपंचिंदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा
छठा संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक
पद्मलेश्यी संज्ञीपंचेन्द्रिय की वक्तव्यता
१. जहा तेउलेसासयं तहा पम्हलेसासयं पि। नवरं संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाइं; एवं ठिती वि, नवरं अंतोमुहत्तं न भण्णइ। सेसं तं चेव। एवं एएसु पंचसु सएसु जहा कण्हलेसासए गमओ तहा नेयव्वो जाव अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥ ४०।६।१-११॥
॥ चत्तालीसइमे सते : छटुं सयं समत्तं ॥४०-६॥ __[१] तेजोलेश्या के समान पद्मलेश्याशतक है। विशेष—संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है। स्थिति भी इतनी ही है, किन्तु इसमें अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिए।
शेष पूर्ववत् । इस प्रकार इन पांचों शतकों में कृष्णलेश्याशतक के समान गमक पहले अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक जानना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत्।
विवेचन—पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति ब्रह्मलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त-सहित दस सागरोपम कही है। ॥ चालीसवाँ शतक : छठा अवान्तरशतक सम्पूर्ण॥
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