SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 847
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१६] बिइए सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसए: पढमाइ- एक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्याविशिष्ट संज्ञीपंचेन्द्रियों के उपपातादि की प्ररूपणा १. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ० तहेव जहा पढमुद्देसओ सन्नीणं, नवरं बंधो, वेओ, उदई, उदीरणा, लेस्सा, बंधगा, सण्णा, कसाय, वेदबंधगा य एयाणि जहा बेंदियाणं कण्हलेस्साणं । वेदो तिविहो, अवेयगा नत्थि । संचिट्ठणा जहनेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तब्भहियाई । एवं ठिती वि, नवरं ठितीए 'अंतोमुहुत्तमब्भहियाई' न भण्णंति । सेसं जहा एएसिं चेव पढमे उद्देस जाव अनंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ॥ ४०-२ । १ ॥ [१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न | [१ उ.] गौतम ! संज्ञी के प्रथम उद्देशक के अनुसार इनकी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेदबंधक, इन सभी का कथन द्वीन्द्रियजीवसम्बन्धी कथन के समान है। कृष्णलेश्यी संज्ञी के तीनों वेद होते हैं, वे अवेदी नहीं होते। उनकी संचिणा जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की होती है और उनकी स्थिति भी इसी प्रकार होती है। स्थिति में अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिए। शेष प्रथम उद्देशक के अनुसार पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। इसी प्रकार सोलह युग्मों का कथन समझ लेना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४० ॥ २ ॥ १ ॥ पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया २. णं भंते! कओ उववज्जंति ? ० जहा सन्निपंचेंदियपढमसमयुसद्देए तहेव निरवसेसं । नवरं ते णं भंते! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता, कण्हलेस्सा। सेसं तं चेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ॥। ४० । २।२ ॥ [२ प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृष्णलेश्यायुक्त कृतयुग्म - कृतयुग्मराशि वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy