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________________ चालीसवाँ शतक : उद्देशक - १] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४० । १ । ३ - ११ ॥ विवेचन - विशिष्टसंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के विषय में— उपशान्तमोहादि जीव वेदनीय के अतिरिक्त ७ कर्मों के अबन्धक होते हैं। शेष जीव यथासम्भव बन्धक होते हैं । केवली अवस्था से पूर्व सभी संज्ञी जीव संज्ञीपंचेन्द्रिय कहलाते हैं और वहाँ तक वे अवश्य ही वेदनीय कर्म के बन्धक ही होते हैं, अबन्धक नहीं। इनमें सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान तक संज्ञीपंचेन्द्रिय मोहनीयकर्म के वेदक होते हैं, तथा उपशान्तमोहादि जीव अवेदक होते हैं । उपशान्तमोहादि जो संज्ञीपंचेन्द्रिय होते हैं, वे मोहनीय के अतिरिक्त सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं । यद्यपि केवलज्ञानी चार अघाती कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, परन्तु वे इन्द्रियों के उपयोगरहित होने से पंचेन्द्रिय और संज्ञी नहीं कहलाते, वे अनिन्द्रिय और नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी कहलाते हैं । [ ७१५ सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक जीव मोहनीयकर्म के उदय वाले होते हैं औरं उपशान्त मोहादिविशिष्ट जीव अनुदय वाले होते हैं। वेदकत्व और उदय, इन दोनों में अन्तर यह है कि अनुक्रम से और उदीरणाकरणी के द्वारा उदय में आए हुए (फलोन्मुख) कर्म का अनुभव करना वेदकत्व है और केवल अनुक्रम से उदय में आए हुए कर्म का अनुभव करना उदय है। अकषयाय अर्थात् क्षीणमोहगुणस्थान तक सभी संज्ञीपंचेन्द्रिय नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं और शेष छह कर्मप्रकृतियों के यथासम्भव उदीरक और अनुदीरक होते हैं । उदीरणा का क्रम इस प्रकार हैछठे प्रमत्त गुणस्थान तक समान्य रूप से सभी जीव आठों कर्मों के उदीरक होते हैं। जब आयुष्य आवलिका मात्र शेष रह जाता है, तब वे आयु के अतिरिक्त सात कर्मों के उदीरंक होते हैं। अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानवर्त्ती जीव वेदनीय और आयु के अतिरिक्त छह कर्मों के उदीरक होते हैं । जब सूक्ष्मसम्पराय आवलिकामात्र शेष रह जाता है तब मोहनीय, वेदनीय और आयु के अतिरिक्त पांच कर्मों के उदीकर होते हैं। उपशान्तमोहगुणस्थानवर्ती जीव इन्हीं पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव का काल आवलिकामात्र शेष रहता हैं, तब वे नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं । सयोगीगुणस्थानवर्ती जीव भी इसी प्रकार उदीरक होते हैं और अयोगीगुणस्थानवर्ती जीव अनुदीरक होते हैं। कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय का है, क्योंकि एक समय के बाद संख्यान्तर होना संभव है और उत्कृष्ट सातिरेक-सागरोपम शत-पृथक्त्व है, क्योंकि इसके बाद संज्ञीपंचेन्द्रिय नहीं होते । संज्ञीपंचेन्द्रियों में पहले के छह समुद्घात होते हैं । सातवाँ केवलीसमुद्घात तो केवलज्ञानियों में होता है और वे अनिन्द्रिय होते हैं। ॥ चालीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक सम्पूर्ण ॥ १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९७० (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३७६७-३७६८ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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