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पैंतीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[६८७ उववजति। दावरजुम्मकलियोगेसु नव वा, संखेजा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति। कलियोग-कड जुम्मेसु चत्तारि वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववति । कलियोगतेयोगेसु सत्त वा, संखेजा वा असंखेजा वा, अर्णता वा उववजति। कलियोगदावरजुम्मेसु छ वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववजंति।
- [२२] इस प्रकार इन सोलह महायुग्मों का एक ही प्रकार का कथन (गमक) समझना चाहिए। किन्तु इनके परिमाण में भिन्नता है। जैसे कि-त्र्योजद्वापरयुग्म का प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण चौदह, संख्यात असंख्यात या अनन्त है। त्र्योजकल्योज का प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण है-तेरह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त । द्वारपयुग्मकृतयुग्म का उत्पाद-परिमाण आठ, संख्यात, असंख्यातं या अनन्त है। द्वापरयुग्मत्र्योज का प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण ग्यारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म में प्रतिसमय में दस संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं। द्वापरयुग्मकल्योज में प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। कल्योजकृतयुग्म में प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण चार, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। कल्योजत्र्योज में प्रतिसमय उत्पत्ति-परिमाण सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है और कल्योजद्वापरयुग्म में प्रतिसमय में उत्पाद का परिमाण छह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है।
२३. कलियोगकलियोगएगिंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ?
उववातो तहेव । परिमाणं पंच वा, संखेजा वा, असंखेजा वा, अणंता वा उववजंति सेसं तहेव (सु०४-१४) जाव अणंतखुत्तो।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥ पणतीसइमे सए : पढमे एगिदिय-महाजुम्मसए : पढमो उद्देसओ समत्तो॥ ३५॥ १।१॥ [२३ प्र.] भगवन् ! कल्योज-कल्योजराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
[२३ उ.] गौतम ! इनका उपपात भी पूर्ववत् कहना चाहिए। इनका प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण पांच संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। शेष सब पूर्ववत् (सू. ४ से १४ तक के अनुसार) अनेक बार अथवा अनन्त
बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। . “हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
विवेचन—निष्कर्ष—इस प्रकरण में कृतयुग्म-त्र्योजरूप एकेन्द्रिय से लेकर कल्योज-कल्योज एकेन्द्रिय तक के जीवों के उत्पाद आदि का कथन पूर्वोक्त कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय के (सू. ४ से १४ तक के अनुसार) अतिदेशपूर्वक किया गया है। किन्तु इन सोलह ही महायुग्मों के प्रतिसमयोत्पत्ति के जघन्य परिमाण में अन्तर है, जिसे मूलपाठ में स्पष्ट कर दिया गया है। ॥ पैंतीसवाँ शतक : प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक समाप्त॥
*** १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं. भा. ३. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ११४५-४६