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बिइए एगिंदियसेढिसए : पढमाइ एक्कारसपज्जंता उद्देसगा
द्वितीय केन्द्रिय श्रेणीशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त
कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय: प्रकार तथा अन्य प्ररूपणा
१. कतिविधा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता ?
गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता, भेदो चउक्कओ जहा कण्हलेस्सएगिंदियसए जाव वणस्सइकाइय त्ति ।
[१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ?
[१ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे । उनक चार - चार भेद एकेन्द्रियशतक के अनुसार वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानने चाहिए ।
२. कण्हलेस्सअपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रतणप्पभाए पुढवीए पुरत्थिमिल्ले० ? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसओ जाव लोगचरिमंते त्ति । सव्वत्थ कण्हलेस्सेसु चेव उववातेयव्वो ।
[२ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिमी - चरमान्त में उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ?
[२.उ.] गौतम ! औंघिक उद्देशक के अनुसार लोक के चरमान्त तक सर्वत्र कृष्णलेश्या वालों में उपपात कहना चाहिए ।
३. कहिं णं भंते ! कण्हलेस्सअपज्जत्तबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ?
एवं एएणं अभिलावेणं जहा आहिउद्देसओ जाव तुल्लट्ठितीए त्ति ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ चौतीसइमे सए : बिइए अवांतरसए : पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ ३४ । २ । १ ॥ [३ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [३ उ.] गौतम ! औधिक उद्देशक के इस अभिलाप के अनुसार 'तुल्यस्थिति वाले' पर्यन्त कहना
चाहिए ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त ॥
॥ चौतीसवाँ शतक : द्वितीय अवान्तरशतक सम्पूर्ण ॥