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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा । तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं तुल्लट्ठितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं तुल्लद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति । से तेणट्टेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ चोतीसइमे सए : पढमे अवांतरसए : बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥ ३४ । १।२॥ [७-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [७-२ उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे हैं, यथा कई जीव समान आयु और समान उत्पत्ति वाले होते हैं, जबकि कई जीव समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं । इनमें से जो समान आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्यस्थिति वाले परस्पर तुल्य विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्र - विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं । इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि यावत् विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं ।
विवेचन—पहले उद्देशक में उत्पत्ति और स्थिति की अपेक्षा ४ भंग कहे थे । उनमें से विषम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम दो भंग अनन्तरोपपन्नक जीव में नहीं पाए जाते, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक में विषम स्थिति का अभाव है।
॥ चौतीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक: द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९५६
(ख) भगवती (हिन्दी - विवेचन ) भा. ७, पृ. ३७१५
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