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________________ ६६८] पढमे एगिंदियसए : बिइओ उद्देसओ पहला एकेन्द्रिशशतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के प्रकारों की तथा अन्य प्ररूपणा १. कतिविहा ण भंते ! अणंतरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा—पुढविकाइया०, दुयाभेदो जहा एगिंदियसतेसु जाव बायरवणस्सइकाइया। [१ प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [१ उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक। फिर प्रत्येक के दो-दो भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहने चाहिए। २. कहि णं भंते ! अणंतरोववन्नगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु, तं जहा–रयणप्पभा जहा ठाणपए जाव दीवेसु समुद्देसु, एत्थ णं अणंतरोववनगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता, उववातेणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेजइभागे, अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविकाइया णं एगिविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्ना पन्नत्ता समणाउसो ! । [२ प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [२ उ.] गौतम ! वे स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियों में हैं, यथा-रत्नप्रभा इत्यादि। प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार—यावत् द्वीपों में तथा समुद्रों में अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहे हैं। उपपात और समुद्घात की अपेक्षा वे समस्त लोक में हैं। स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं । अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक सभी जीव एक प्रकार के हैं तथा विशेषता और भिन्नता रहित हैं तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। ३. एवं एतेणं कमेणं सव्वे एगिंदिया भाणियव्वा। सट्ठाणाई सव्वेसिं जहा ठाणपए। एतेसिं पज्जत्तगाणं बायराणं उबवाय-समुग्घाय-सट्ठाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जगाणं बायराणं, सुहुमाणं सव्वेसिं जहा पुढविकाइयाणं भणिया तहेव भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइय त्ति। [३] इसी क्रम में सभी एकेन्द्रिय-सम्बन्धी कथन करना चाहिए। उन सभी के स्वस्थान प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थानपद के अनुसार हैं। इन पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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