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________________ ६६२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीवों में भी उपपात का कथन करना चाहिए। इन सभी में यथायोग्य दो समय, तीन समय या चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिए। ६१. [१] अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेजा। [६१-१ प्र.] भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, लोक के पूर्वी-चरमान्त में समुद्घात करके लोक के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [६१-१ उ.] गौतम ! वह एक, दो, तीन अथवा चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [२] से केणटेणं०? एवं जहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते उववातिता तहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पच्चथिमिल्ले चरिमंते उववातेयव्वा सव्वे। _[६१-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि यह यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [६१-२ उ.] गौतम ! पूर्ववत्, जैसे पूर्वी-चरमान्त में समुद्घात करके पूर्वी-चरमान्त में ही उपपात का कथन किया, वैसे ही पूर्वी-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम-चरमान्त में सभी के उपपात का कथन करना चाहिए। ६२. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! ०? ____ एवं जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहओ दाहिणिल्ले चरिमंते उववातिओ तहा पुरथिमिल्ले० समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववातेयव्वो। [६२ प्र.] भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, लोक के पूर्वी-चरमान्त में समुद्घात करके लोक के उत्तर-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव में उत्पन्न होने योग्य है तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [६२ उ.] गौतम ! जिस प्रकार पूर्वी-चरमान्त में समुद्घात करके दक्षिण-चरमान्त में उपपात का कथन किया, उसी प्रकार पूर्वी-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उपपात का कथन करना चाहिए। ६३. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स दाहिणिल्ले, चरिमंते समोहए, समोहणित्ता' जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववण्णिजत्तए। एवं जहा पुरथिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चेव उववातिओ तहा दाहिणिल्ले समोहओ
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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