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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[६ उ.] गौतम ! इसी अभिलाप से औधिक उद्देशक के समान 'वेदते हैं', यहाँ तक कहना चाहिए। ७. कतिविधा णं भंते अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा जाव वणस्सतिकाइया ।
[७ प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्त्रक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [७ उ.] गौतम ! अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं, यथा— पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक ।
८. अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविकाइयां णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - सुहुमपुढविकाइया य, बायरपुढविकाइयाय ।
[८ प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक- पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ?
[८ उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं, यथा— - सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक । ९. एवं दुपओ भेदो ।
[९] इसी प्रकार अप्कायिक आदि के भी दो-दो भेद कहने चाहिए ।
१०. अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहुमपढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ ।
एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ अणंतरोववन्नो उद्देसओ तहेव जाव वेदेंति ।
[१० प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ?
[१० उ.] गौतम ! यहाँ भी इसी अभिलाप से अनन्तरोपपन्नक के औधिक उद्देशक के अनुसार, यावत् ‘वेदते हैं' यहाँ तक कहना चाहिए।
११. एवं एतेणं अभिलावेणं एक्कारस वि उद्देसगा तहेव भाणियव्वा जहा ओहियसए जाव अचरिचमोति ।
॥ छट्टे एगिंदियसए : पढमाइ - एक्कारस- पज्जंता उद्देसगा समत्ता । ६ । १-११॥ ॥ तेतीसइमे सए : छट्टं एगिंदियसतं समत्तं ॥ ३३-६॥
[११] इसी प्रकार इसी अभिलाप से, औधिक शतक के अनुसार, पूर्ववत् ग्यारह ही उद्देश 'अचरमउद्देशक' पर्यन्त कहने चाहिए ।
॥ छठा एकेन्द्रियशतक : एक से लेकर ग्यारह उद्देशक - पर्यन्त समाप्त ॥
॥ तेतीसवाँ शतक : छठा एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण ॥
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