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________________ ६३६ ] बिइए एगिंदियस : बिइओ उद्देसओ द्वितीय केन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय-भेद - प्रभेद, उनकी कर्मप्रकृतियाँ, बंध तथा वेदन की प्ररूपणा १. कतिविधा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता ? गोमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया० । एवं एएणं अभिलावेणं तहेव दुपओ भेदो जाव वणस्सइकाइ यत्ति । [१ प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपत्रककृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [१ उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नककृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव (पूर्ववत्) पांच प्रकार के कहे हैं। इस अभिलाप से पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त (पूर्ववत् प्रत्येक ) के दो-दो भेद होते हैं । २. अणंतरोववन्नगकण्हलेस्ससुहुमपुढविकाइयाणं भंते! कति कम्पप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिओ अणंतरोववन्नगाणं उद्देसओ तहेव जाव वेदेंति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० । ॥ तेतीसइमे सए : बिइए उद्देसओ समत्तो ॥ ३३-२-२॥ [२ प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [२ उ.] गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक अनन्तरोपपन्नक के अनुसार 'वेदते हैं', तक समग्र कथन करना चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन — औधिक अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार — यहाँ कृष्णलेश्याविशिष्ट अनन्तरोपपत्रक एकेन्द्रिय के मूल पाँच भेद तथा आठ कर्मप्रकृतियाँ, बन्ध तथा वेदन का निरूपण किया गया है। अन्तर केवल इतना ही है कि यहाँ पृथ्वीकायिक आदि पांचों के चार भेद के बदले केवल दो भेद ही होते हैं— सूक्ष्म और बादर । ॥ तेतीसवाँ शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ***☀
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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