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तेतीसवां शतक : उद्देशक-१]
[६३५ [५] उसी प्रकार वे (कर्मप्रकृतियाँ) बांधते हैं। ६. तहेव वेदेति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥ तेतीसइमे सए : विइए एगिदिय-सए : पढमो उद्देसओ समत्तो॥३३।२।१॥ [६] उसी प्रकार वे (कर्मप्रकृतियाँ) वेदते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यो कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते
विवेचन—कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय के लिए औधिक उद्देशक का अतिदेश–प्रस्तुत प्रकरण में कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, उनमें पाई जाने वाली कर्मप्रकृतियाँ तथा उनके बन्ध और वेदन के समग्र कथन का प्रथम अवान्तरशतक के प्रथम (औधिक) उद्देशक के अनुसार अतिदेश किया गया है।'
॥ तेतीसवाँ शतक : दूसरा अवान्तर एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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१. वियाहपण्णत्तिसुत्त, भा. ३, पृ. १११९