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इकतीसवाँ शतक : उद्देशक-२]
६. कण्हलेस्सखुड्डागदावरजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ! ० एवं चेव, नवरं दो वा, छ वा, दस वा, चौद्दस वा। सेसं तं चेव। [६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी क्षुद्रद्वापरयुग्म-राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
[६ उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना। किन्तु दो, छह, दस या चौदह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत्।
७. एवं धूमप्पभाए वि जाव अहेसत्तमाए। [७] इसी प्रकार धूमप्रभा से अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। ८. कण्हलेस्सखुड्डागकलियोगनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? ० एवं चेव, नवरं एक्को वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा, संखेजा वा, असंखेजा वा। सेसं तं चेव। [८ प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकल्योज-राशिपरिमाण कृष्णलेश्यावाले नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं?
[.८ उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। किन्तु परिमाण में वे एक, पांच, नौ, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत्।
९. एवं धूमप्पभाए वि, तमाए वि, अहेसत्तमाए वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥ इक्कतीसइमे सए : बितिओ उद्देसओ समत्तो॥३१-२॥ [९] इसी प्रकार धूमप्रभा, तम:प्रभा और अध:सप्तमपृथ्वी पर्यन्त समझना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं।
_ विवेचन—कृष्णलेश्यी नैरयिकों के विषय में प्रस्तुत प्रकरण में कृष्णलेश्या वाले नैरयिकों के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से उत्पत्ति का कथन किया है। यह लेश्या पांचवीं, छठी और सातवीं नरकपृथ्वी के नैरयिकों में होती है। यहाँ सामान्यदण्डक तथा नरकत्रय-सम्बन्धी तीन दण्डक, यों कुल चार दण्डक होते हैं। इनका उपपात (उत्पाद) प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार है। इनमें असंज्ञी, सरीसृप, पक्षी और सिंह (आदि सभी चतुष्पदों) को छोड़ कर अन्य तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और गर्भज उत्पन्न होते हैं।
॥ इकतीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
१. (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३६४२
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९५०