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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र क्रियावादी कहलाते हैं। तीसरी व्याख्या के अनुसार एकान्तरूप से जो जीव, अजीव आदि पदार्थों के अस्तित्व को मानते हैं, वे क्रियावादी हैं । इनके १८० भेद हैं । यथा—जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ पदों के स्व और पर के भेद से अठारह भेद होते हैं। इन १८ भेदों के नित्य और अनित्य रूप से ३६ भेद होते हैं। इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पांच-पांच भेद करने से १८० भेद होते हैं । यथा—जीव स्व-स्वरूप से काल की अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है। जीव पररूप से काल की अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है । इस प्रकार काल की अपेक्षा से ४ भेद होते हैं। इसी प्रकार नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा को अपेक्षा भी जीव के चार-चार भेद होते हैं। इस प्रकार जीव आदि नौ तत्त्वों के प्रत्येक के वीस-वीस भेद होने से कुल १८० भेद हुए।
(२) अक्रियावादी—इसकी भी अनेक व्याख्याएँ हैं। यथा—(१) किसी भी अनवस्थित पदार्थ में क्रिया नहीं होती। यदि पदार्थ में क्रिया हो तो उसकी अनवस्थिति नहीं होगी। इस प्रकार पदार्थों को अनवस्थित मान कर उनमें क्रिया का अभाव मानने वाले अक्रियावादी हैं । (२) अथवा क्रिया की क्या आवश्यकता है ? केवल चित्त की शुद्धि चाहिए। ऐसी मान्यता वाले (बौद्ध आदि) अक्रियावादी कहलाते हैं। (३) अथवा जीवादि के अस्तित्व को न मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं। इनके ८४ भेद हैं । यथा—जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात तत्त्वों के स्व और पर के भेद से चौदह भेद होते हैं। काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा; इन ६ की अपेक्षा पूर्वोक्त १४ भेदों का वर्णन करने से १४४६-८४ भेद होते हैं। जैसे कि—जीव स्वत: काल से नहीं है, जीव परतः काल से नहीं है। इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद होते हैं, इसी प्रकार यदृच्छा, नियति आदि की अपेक्षा से भी जीव के दो-दो भेद होने से कुल बारह भेद जीव के हुए। जीव के समान शेष ६ तत्त्वों के भी बारह-बारह भेद होते हैं। यों कुल १२४७-८४ भेद हुए।
(३) अज्ञानवादी-जीवादि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई नहीं है और न ही उनके जानने से कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त ज्ञानी और अज्ञानी—दोनों का समान अपराध होने पर ज्ञानी का दोष अधिक माना जाता है. अज्ञानी का कम। इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार अज्ञानवादी कहलाते हैं । इनके ६७ भेद हैं । यथा—जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ तत्त्वों के सत्, असत् सदसत्, अवक्तव्य, सद्अवक्तव्य, असद्-अवक्तव्य और सद्-असद्अवक्तव्य इन सात से गुणन करने पर ९४७-६३ भेद होते हैं । उत्पत्ति के सद्, असद् सदसत् और अवक्तव्य की अपेक्षा से चार भेद होते हैं। जैसे कि सत् जीव की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है ? और इसके जानने से क्या लाभ है ? इत्यादि।
(४) विनयवादी-स्वर्ग, अपवर्ग आदि श्रेय का कारण विनय है। इसलिए विनय ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विनय को ही एकान्तरूप से मानने वाले विनयवादी कहलाते हैं । इन विनयवादियों का कोई लिंग (वेष या चिह्न), आचार या शास्त्र नहीं होता। इसके बत्तीस भेद हैं । यथा—देव, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम,
न्यता वाले