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बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक
अनन्तरोपपन्नक नैरयिकादि के पापकर्मवेदन सम्बन्धी अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा समकाल-विषमकाल को लेकर पापकर्मवेदन आदि की प्ररूपणा
१. [१] अणंतरोववन्नगाणं भंते ! नेरतिया पावं कम्मं किं समायं पट्ठविंसु, समायं निट्ठविंसु० पुच्छा।
गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसुः अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु।
__ [१-१ प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक रैरयिक एक काल में (एक साथ) पापकर्म वेदन करते हैं तथा एक साथ ही उसका अन्त करते हैं ?
[१-१ उ.] गौतम ! कई (अनन्तरोपपन्नक नैरयिक) पापकर्म को एक साथ (समकाल में) भोगते हैं और एक साथ अन्त करते हैं तथा कितने ही एक साथ पापकर्म को भोगते हैं, किन्तु उसका अन्त विभिन्न समय में करते हैं।
[२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ—अत्थेगइया समायं पट्टविंसु० तं चेव।
गोयमा ! अणंतरोववन्नगा नेरतिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—अत्थेगइया समाउया समोवनगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा। तत्थ णं जे ते समाउया समाववनगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु समायं निट्ठविंसु। तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु विसमायं निट्ठविंसु। से तेणटेणं० तं चेव।
[१-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि कई ......... एक साथ भोगते हैं ? इत्यादि प्रश्न ?
[१-२ उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के हैं । यथा-कई समकाल के आयुष्य वाले और समकाल में ही उत्पन्न होते हैं तथा कतिपय समकाल के आयुष्य वाले, किन्तु पृथक्-पृथक् काल के उत्पन्न हुए होते हैं। उनमें से जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं तथा एक साथ उत्पन्न होते हैं, वे एक काल में (एक साथ) पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ करते हैं तथा उसका अन्त भी एक काल में (एक साथ) करते हैं
और जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ तो एक साथ (एक काल में) करते हैं, किन्तु उसका अन्त पृथक्-पृथक् काल में करते हैं, इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है।
२. सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरतिया पावं? एवं चेव।