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उनतीसवाँ शतक : उद्देशक १]
कहना चाहिए ।
६. जहा पावेण दण्डओ, एएणं कमेणं अट्ठसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ठ दंडगा भाणियव्वा जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा । एसो नवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसओ भाणियव्वो ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ एगूणतीसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ २९-१॥
[६] जिस प्रकार पापकर्म के सम्बन्ध में दण्डक कहा, इसी प्रकार इसी क्रम से सामान्य जीव से लेकर वैमानिकों तक आठों कर्म-प्रकृतियों के सम्बन्ध में आठ दण्डक कहने चाहिए ।
इस रीति से नौ दण्डकसहित यह प्रथम उद्देशक कहना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन — पापकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त की चौभंगी का स्पष्टीकरण – पापकर्म को भोगने के प्रारम्भ और अन्त के लिए प्रस्तुत शतक में कथित चतुर्भंगी, समकाल और विषमकाल की अपेक्षा से कही गई है। यह चतुर्भंगी सम और विषम (एक काल और विभिन्न काल) तथा सम (एक काल में ) उत्पत्ति और विषम (विभिन्न काल में) उत्पत्ति वाले जीवों की अपेक्षा से घटित होती हैं।
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शंका : ': समाधान - प्रश्न होता है कि यह चतुर्भंगी आयुकर्म की अपेक्षा तो घटित हो सकती है, किन्तु पापकर्मवेदन की अपेक्षा कैसे घटित होगी, क्योंकि पापकर्म का आयुकर्म की अपेक्षा न तो प्रारम्भ होता है और न ही उसका अन्त होता है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ कर्मों का उदय और क्षय भव की अपेक्षा से विवक्षित हैं। इसी अपेक्षा से आयुकर्म की समानता (समकालिक कर्मवेदन) और विषमता तथा विवक्षित आयुष्यकर्म का क्षय होने पर भव में उत्पत्ति की समता और विषमता को लेकर पापकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का कथन किया है। अतएव पापकर्मवेदन से सम्बन्धित यह चौभंगी घटित हो जाती है ।
कठिन शब्दार्थ- समायं—एक साथ एक काल में, पट्ठविंसु — प्रस्थापित हुए — प्राथमिकरूप से वेदन करना प्रारम्भ किया, निट्ठविंसु — निष्ठा को प्राप्त किया, अन्त-समाप्त किया।
॥ उनतीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र ९४० - ९४१
(ख) भगवती (हिन्दी - विवेचन) भा. ७, पृ. ३५९८
२. भगवती अ. वृत्ति पत्र ९४०
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