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________________ ५७०] तइयादि-एगारसम-पजंता उद्देसगा तीसरे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त छव्वीसवें शतक के तृतीय से ग्यारहवें उद्देशकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपणा १. एवं एएणं कमेणं जहेव बंधिसते उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इहं पि अट्ठसु भंगेसु नेयव्वा। नवरं जाणियव्वं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं जाव अचरिमुद्देसो। सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ। ॥ अट्ठावीसइमे सए : तइयाइ-एक्कारस-उद्देसगा समत्ता॥ २८ । ३-११॥ ॥अट्ठावीसइमं पापकम्म-समजण-सयं समत्तं॥ [१] जिस प्रकार 'बन्धीशतक' में उद्देशकों की परिपाटी कही है, उसी क्रम से, उसी प्रकार यहाँ भी आठों ही भंगों में जाननी चाहिए। विशेष यह है कि जिसमें जो बोल सम्भव हों, उसमें वे ही बोल यावत् अचरम उद्देशक तक कहने चाहिए। इस प्रकार ये सब ग्यारह उद्देशक (पूर्ववत्) हुए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते विवेचन–ग्यारह उद्देशक तक बन्धीशतक का अतिदेश-बन्धीशतक में तीसरे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक जिस क्रम से जो भी प्रश्नोत्तर अंकित हुए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक कहना चाहिए। इतना अवश्य विवेक करना चाहिए कि जिसमें जो बोल सम्भव हो, वही कहना चाहिए, अन्य नहीं। . ॥अट्ठाईसवाँ शतक : तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण॥ ॥ अट्ठाईसवाँ शतक समाप्त॥ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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