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अट्ठाईसवाँ शतक : उद्देशक २]
[५६९ मनोयोग, वचनयोगादि कतिपय पद संभवित नहीं हैं, इसलिए जैसे बन्धीशतक में उस विषय के प्रश्न नहीं किये गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी नहीं करने चाहिए।
शंका : समाधान—प्रथम भंग में कहा गया है—सभी तिर्यञ्चयोनिक से आकर उत्पन्न हुए, किन्तु सिद्धान्तानुसार तिर्यञ्च तो आठवें देवलोक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं, तब फिर तिर्यञ्च से निकले हुए आनतादि देवों में कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? तथा तिर्यञ्च से निकले हुए तीर्थंकरादि उत्तम पुरुष भी नहीं होते, ऐसी शंका द्वितीय आदि भंगों में होती है। इसका समाधान वृत्तिकार ने यह किया है कि वृद्ध-आचार्यों की धारणानुसार ये भंग बाहुल्य को लेकर समझने चाहिए।
॥ अट्ठाईसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
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१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९४०