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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[३] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी जीवों (से लेकर) यावत् अलेश्यी जीवों तक के विषय में भी कहना चाहिए। ४. कण्हपक्खिया, सुक्कपक्खिया एवं जाव अणागारोवउत्ता ।
[४] कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक ( से लेकर) अनाकारोपयुक्त तक इसी प्रकार का कथन करना चाहिए। ५. नेरतिया णं भंते ! पावं कम्मं कहिं समज्जिणिंसु ? कहिं समायरिंसु ?
गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं चेव अट्ठ भंगा भाणियव्वा ।
[५ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों ने कहाँ (किस गति या योनि में) पापकर्म का समर्जन और कहाँ समाचरण किया था ?
[५ उ.] गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्ववत् आठों भंग यहाँ कहने चाहिए।
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६. एवं सव्वत्थ अट्ठ भंगा जाव अणागारोवउत्ता ।
[६] इसी प्रकार सर्वत्र अनाकारोपयुक्त तक आठ-आठ भंग कहने चाहिए ।
७. एवं जाव वेमाणियाणं ।
[७] इसी प्रकार (दण्डक के क्रम से) वैमानिक पर्यन्त प्रत्येक के आठ-आठ भंग जानने चाहिए ।
८. एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ।
[८] इसी प्रकार ज्ञानावरणीय के विषय में भी ८ भंग समझने चाहिए।
९. एवं जाव अंतराइएणं ।
[९] (दर्शनावरणीय से लेकर) अन्तरायिक तक इसी प्रकार जानना चाहिए। १०. एवं एते जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा नव दंडगा भवंति ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ।
॥ अट्ठावीसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ २८-१ ॥ [१०] इस प्रकार जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये नौ दण्डक होते हैं ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैंविवेचन — समर्जन और समाचरण का विशेषार्थ — समर्जन का विशेषार्थ है— पापकर्मों का समर्जन अर्थात्-उपार्जन, और समाचरण का विशेषार्थ है- पापकर्म के हेतुभूत पापक्रिया का आचरण या उसके विपाक का अनुभव। यहाँ प्रश्न का आशय यह है कि जीव ने पापक्रिया के समाचरण द्वारा किस गति में पापकर्म का उपार्जन किया था ? अथवा समर्जन और समाचरण ये दोनों एकार्थक (पर्यायवाची) शब्द हैं। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३९